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________________ विद्या बल धन रूप यश, कुल सुत यनिता मान, सभी सुलभ संसार में दुर्लभ आत्म ज्ञान ॥ हिन्दी अनुवाद सहित * * * ৩ । १५९ कोटिध्वज सेठ हैं। में आपके साथ ही तो यहां आया हूँ । राजा ने उन्हें अभयदान दे, क्षमा प्रदान कर दी । । जी ॥ २८ ॥ एक दिन आवी सेठ, कुंवर ने इम वीनवे जी । वेची वोनी वस्तु, पूर्या करियाणे नवे जी ॥ २६ ॥ a अमने इठाण, कुशल क्षेमे जिम आणिया जी । तिम पहोंचाड़ो देश, तो सुख पाये प्राणिया जी ॥ २७ ॥ कुंवरे जणाच्यो भाव, निज देश जावा तणो जी । तव नृपने चित मांहि असंतोष उपज्यो घणो मांग्या भूषण जेह, ते उपर ममता किसी परदेशी गीत, दुःखदायी होये सासु ससरा दोय, करजोडी आदर घणे आंसू पडते घार, कुंवर ने इणी परे मदनमंजूषा एह अम उत्संगे उछरी जी । जन्म थकी सुख मांहि, आज लगी लीला, कसे जो ॥ ३१ ॥ वहाली जीवित प्राय, तुम हाथे थापण उवि जी । एहने म देखो छेड़, जो पण परणो नव नवी जी ॥ ३२ ॥ इसी भणे जी | । जी ॥ २९ ॥ जी । जी ॥ ३० ॥ धवलसेठ - कुंवरजी ! धन्यवाद । मैं आपका बड़ा आभारी हूं। श्रीमान का साथ करने से मुझे अपने व्यवसाय में अच्छी सफलता मिली। यहां से माल भर लिया है। अतः भविष्य में भी बहुत कुछ लाभ होने की आशा है । अब यदि आप हमें सकुशल वापस अपने देश पहुंचा दें तो बड़ी कृपा होगी। सेठ की प्रार्थना स्वीकार कर श्रीपालकुचर ने अपने ससुर कनककेतु से विदा मांगी। विदाई का नाम सुनते ही मदनमंजूषा के माता पिता का हृदय भर आया, आंखों से आंसू बहने लगे । सम्राट - श्रीमान्जी ! कृपया विराजियेगा । ऐसी जल्दी क्या है ? श्रीपालकुंवर को मौन ख कनककेतु समझ गये कि वास्तव में पराई घरोहर और परदेशी की प्रीत दोनों समान ही हैं ।
SR No.090471
Book TitleShripalras aur Hindi Vivechan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNyayavijay
PublisherRajendra Jain Bhuvan Palitana
Publication Year
Total Pages397
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Biography, & Story
File Size12 MB
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