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विषय भोग आत्मा अहित. हित है शान विराग। तब तक ज्ञान विराग नहीं, जबतक नहीं निजराग ।। हिन्दी अनुवाव सहित *- *- *5** * * ॐ १५५
होगी देवी ! तुम्हारी जो जो, आवश्यकता जीवन की। श्रीपाल- वह सब पूर्ण करूंगा, चिन्ता मुझे न है तन-धन की।
लक्ष्मी अगर रुष्ट भी होगी, तो न कमी घबड़ाऊँगा। मुट्ठी भर अनाज पाऊंगा, पहिले तुम्हें खिलाऊंगा ॥
eeg घर की हालत देख, मितव्ययिता का ध्यान खंगी मैं | मदन
कभी अपव्यय न करूंगी मैं, पूरी सेवा देगी मैं । मंजूषा मुट्ठी भर भी अन्न मिलेगा, खुश होकर स्वीकार करूंगी।
जितनी लम्बी खोर रहेगी, उतने पैर पसारूंगी।
श्रीपाल
रोग आदि विपदा आने पर, दंगा साथ तुम्हारा । दास बनूंगा पार करूंगा, विपदाओं की धारा ॥ किसी तरह का ओर अगर, तुमपर संकट आवेगा। मुझ को मारे बिना न तुम को, हाथ लगा कोई पावेगा।
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xxxxxxxxx मदन- मंजूषा
विपदाओ में साथ रहूंगी, बनी रहूंगो दासी । छोडूंगी सर्वस्व रहूँगो, बस सेवा की प्यासी ।। सेवा की पवित्र वेदी पर जीवन बलि कर देंगी। अपने प्राण निचोड़ तुम्हारी, सेवा में घर दूंगी ।
श्रीपाल
होगा तुम्हाग कार्य जो, उसमे रहूँगा साथ मैं । होगी सदा इच्छा यहीं, कुछ तो बटाऊं हाथ में । कोशिश करूंगा सर्वदा, हममें सदा सहयोग हो। मिल कर हमारा योग हो, मिलकर हमारा भोग हो ।
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