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पूछे मित्र कला सब, निज मतलब के हेत । निज हित सबको जगत प्रिय, स्वार्थ बिना मब प्रेत १४८ % %%%*-- - -
श्रीपाल रास तिलक वधावी कुंवर ने, देई श्रीफल पान । सज्जन साथे प्रेम करी, दीधुं कन्या दान ॥ ३ ॥ श्रीफल फोफल सयल ने, देई घणां तंबोल। तिलक करीने छाटणा, कीधा केशर घोल ॥ ४ ॥ निज डेरे कुंवर गया, मंदिर पहोता राय ।
बेहु ममे विवाहनां, घणां महोत्सव थाय ॥५॥
सम्राट कनककेतु ने उपस्थित जनता का आदर सत्कार कर उन्हें पान, सुपारी, इलायची दे संतुष्ट किया | पश्चात् राजा ने कहा - महानुभावो ! श्री ऋषभदेव स्वामी और देवी चक्रेश्वरी को मैं कोटि-कोटि वन्दन कर, धन्यवाद देता हूँ, कि जिन के सहयोग से मैं सहज ही कामदेव समान रूप-सौंदर्यवान श्रीपालकुंवर को पा सका हूं। आज मेरी मनोकामना सफल हुई। अब में प्रसन्न हृदय से कुंवर को तिलक कर राजकुमारी मदनमजूपा प्रदान करता हूं। ( तालियां और धन्यवाद की ध्वनि के साथ सभा विसर्जन हुई । ) कुंवर जिनदास के साथ चल दिये । दोनों और बड़े समारोह के साथ विवाह की तैयारियां होने लगीं ।
बड़ी वडारण दे बड़ी, पापड़ घणा वणाय । केलविये पकवान बहु, मंगल धवल गवाय ॥ ६ ॥ वाघा सीवे नव नवा, दरजी बेठा बार । जड़िया मणि माणक जड़े, घाट घड़े सोनार ॥ ७॥ राये मंडाव्यो मांडवो, सोवन मणिमय थंभ | थंभ थंभ मणि पूतली, करती नाटारंभ ॥ ८॥ तोरण चिहं दिशि बारणे, नील स्यण मय पान । झमे मोती. झूमका, जाणे स्वर्ग विमान ॥ ९ ॥ पंच वरण ने चंद्रवे, दीपे मोती दाम । भानु तास मंडले, आवी कियो विशराम ॥१०॥