________________
कोड न दुःखा सके, भोगे धन परिवार । फल मिलता जब पापका, एक न जावे द्वार ॥
१४४ 1967
भोपाल रास
आप एक अस्थाई क्षणभंगुर इस अपनी देह के भरण पोषण की उधेड़बुन में सारा दिन बिता देते हैं | बात की बात में आपके वर्गों निकल गये, किन्तु कभी अपने अपनी शाश्वत आत्मा का हित सोचा ? उसे उपर उठाने का कभी प्रयत्न किया ? क्यों करने लगे ? स्पष्ट कहियेगा कि हमने दर्पण तो अनेक बार देखा है, किन्तु आंखे मूंद कर देखा, अपने आपको नहीं पहचाना | भेद विज्ञान के गूढ़ रहस्य को हमने नहीं पहचाना, अर्थात् आत्मा नित्य है, तो यह शरीर क्षणभंगुर है । इस मनुष्य पर्याय को हो आत्मा मान बैठे हैं। आत्मा की अनंत शक्ति को नहीं समझे ।
नहीं समझे उसीका यह कुपरिणाम हैं, कि आप इन्द्रियों के सदुपयोग को भूल, विषयभोग, ईर्षा, क्रोध, कपट, घृणा और घमण्ड के शिकार बन रहे हैं ।
क्या आपको अपने वख और मुंह पर लगे दाग खटकते हैं ? हां। तो फिर आप के हृदय - पट पर ईर्षा, क्रोध, घमण्ड, चोरी, विश्वास घात, असंयम और राग-द्वेष के कितने कलुषित गंदे दाग लगे हैं ? उस पर आपने तनिक भी विचार किया ? अपनी काली करतूतों से आपको कभी घृणा हुई ? क्या कभी आपकी आंखों से आंसू टपके १ कि ET ! मैं वैभवसम्पन्न होकर भी आज तक किसी के काम न आया। गरीबों की सार संभाल न की । अपने स्वधर्मी बन्धु, अनाथ, असहाय, विधवा बहिनों को रोती बिलखती देख मेरा हृदय जरा भी द्रवित न हुआ । हाय !! हाय! में अब तक केवल भोग का कीट वन त्याग तप से वंचित हो रहा |
क्या कभी आपको दुर्व्यसनों से विमुख होने की स्फूर्ति हुई ? कभी आपने किसी संत-महात्मा - सद्गुरु की शरण में बैठ उनसे अन्तरंग हृदय से प्रार्थना की ? - कि हे प्रभो ! परम कृपालु ! मैं अब छल कपट शोषणवृत्ति इन अपनी काली करतूतों से ऊ गया हूँ । मेरे अक्षम्य अपराधों की क्षमा कर मुझे सन्मार्ग दर्शन दें । मेरा निस्तार करें ।
याद रखो ! मुंह और वस्त्रों के दाग तो संभव है, किसी उग्र क्षार, साबुन से भी साफ हो सकते हैं । किन्तु हृदय के दाग अर्थात् आपकी आत्मा के साथ संलग्न क्लिष्ट कर्मों के गंदे धब्बे तो अनेक बार दुर्गति में सड़ने, तड़फने, छटपटाने पर भी साफ होना कठिन है ।
आप अपने भाग्य और भविष्य का अन्धकार दूर करना चाहते हैं ? तो इन्द्रियनिग्रह और समय का सदुपयोग करना सीखें | अपने चंचल मन को केन्द्रित कर आदर्श त्याग,
I