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स्वयं अकेर जन्म ले, मरे अकेला आप । रुग्ण अकेला आप हो, सहे अकेला ताप ।। हिन्दी अनुवाद सहित 25RWAR******२ १४३
श्री विद्याचारण मुनि का प्रवचन )
“जाविन्दिया न हायंति, ताव धम्मं समायर " क्या आपकी आंखे, नाक, कान, मुंह सुन्दर और स्वस्य हैं ? हां ! तो आज से इसी समय इनका सदुपयोग करना आरम्भ कर दें। अन्यथा इनका बल क्षीण होने पर आप हाथ मलते रह जाएंगे।
यह मनुष्य भव आपकी अनेक भवों की तपश्चर्या का एक सुन्दर मधुर फल है। इसे पाने के लिये देव-देवेन्द्र भी सदा लालायित रहते हैं। मानव भव का मूल्य केवल रोटी, कपड़ा और विण्य-भोग ही नहीं, इसका मूल्य है अपने आपको पहचानकर, आगे बढ़, आत्मोन्नति करना ।
आप सुबह दांत साफ करते समय अपना मुंह दर्पण में देखते हैं । दुपहर को घर से बाहर जाते समय बन ठन कर कांच में अपनी शकल-सूरत देखकर मुस्कराने है। संध्या समय वापस घर लौटते ही आपको बिना कांच देखे चैन नहीं। यह क्यों ? आपको चिन्ता है, कहीं मेरे मुंह और बस्त्रों पर दाग तो नहीं लगा है।
क्या आपने कभी यह भी सोचा, कि इस कांच में मेरे समान जो आकृति दिखाई देती है, वह मैं नहीं हूँ, यह तो एक यहां चन्द दिनों का अतिथि मिट्टी का खिलौना है। इस खिलौने को देखने की जिसमें शक्ति है, उसको कहते हैं, आत्मा । __ आत्मा सदा शाश्वत और अनंत शक्तिमान है । मैं व्यर्थ ही अब तक इस हाड़मांस
के पुतले को अपनी आत्मा मानकर भान भूला हूँ। - याद रखियेगा ! आप इस मिट्टी के खिलौने को कितना ही लाड़ प्यार करें, इसे हलबा, पूडी, बादाम, पिश्ते, कंद-मूल, आलू, मूला, गाजर, लहसन आदि अभक्ष-अपेय पदार्थ खिला पिला कर मस्त सांड बना दें, किन्तु फिर भी टूटी की बूटी नहीं । एक दिन आपको असमय में यमराज अपनी पाश में जकड़ कर ले ही उड़ेगा। उस समय धन, धरा, धनवंतरी वेद्य और परिवार का कोई भी व्यक्ति आयको काल के माल से बचा न सकेगा।
दल बल देवी देवता, मात पिता परिवार । मरती विरिया जीव की, कोई न राखण हार ॥