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पर आलेमन छोड़ के धरो तोप तज रोष । ज्ञाननिष्ठ स्वाध्यायात, लहे सुधा सतोष। १४२
श्रीपाल रास देव रचित वर आसने जी, बेठा तिहां मुनिराय रे। दिरे मधुर धनि देशना जी, भविक श्रवण सुखदाय रे ॥ कुं०॥ ११ ॥
सम्राट कनककेतु ने सधन्यवाद श्रीपालकुंवर का आभार प्रदर्शन कर उनसे कुल जाति का परिचय पूछा । तब वे मुस्कराकर रह गये । राजा ने पुनः अपने प्रश्न को दुहराते हुए कहा । श्रीमानजी ! मैं मानता हूं कि वास्तव में आप अपने आचार विचार वेषभूपा से कोई उत्तम सिद्ध पुरुष ज्ञात होते हैं। सच है, सज्जन पुरुष सदा आत्मश्लाघा से दूर रहते हैं, किन्तु मानव हृदय में जिज्ञासा का होना भी तो स्वाभाविक है ।
उसी समय सहसा आकाश में एक दिव्य ज्योति प्रकटी। चारों ओर प्रकाश से चकाचौंध छा गई। जनता ने आँख उठाकर देखा तो आकाशमार्ग से एक बड़े तेजस्वी विद्याचारण मुनि आते हुए दिखाई दिये । उनके साथ अनेक देव भी थे, सभी ने आदिनाथ भगवान की जय हो ! जय हो !! जयघोष के साथ मंदिर में प्रवेश कर चैत्यवंदन विधि की । पश्चात् मुनि बाहिर सभा मण्डप में देवरचित सुन्दर आसन पर बैठकर धर्म-देशना देने लगे। नवपद महिमा तिहाँ चरणवेजी, सेवो भविक सिद्धचक्र रे । इह भव पर भव लहिये पहथी जी, लीला लहेर अथक रे ॥°०॥१२॥ दुःख दोहग सवि उपशमे जी, पग पग पामे ऋद्धि रसाल रे। ए नवपद आरधतांनी, जिम जग कुंवर श्रीपाल रे ॥ कुं० ॥ १३ ॥ प्रेमे सयल पूछे परषदाजी, ते कुण कुवर श्रीपाल रे। मुनिवर तब दूर थी कहे जी, तेहगें चरित्र साल रे ॥ कुं० ॥१४॥ तुम पुण्ये इहां आवियोजी, उघड्या वैत्य दुवार रे । तेह सुणीने नृप हरखियोजी, हाख्यो सवि परिवार रे ॥ कुं० ॥१५॥ एम कही ने मुनिवर उत्पत्याजी, गयण मारग ते जाय रे । उभा थई ऊँचे मुखेजी, वंदे सहु तस पाय रे ॥ कुं० ॥ १६ ॥ ढाल सुणी इम सातमीजी, खंड बीजानी एह रे। विनय कहे सिद्धचक्र नीजी, मक्ति करो गुण गेह रे ॥ कुं० ॥१७॥