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भीड़ पड़े साथी नहीं, सब हो जाते दूर । स्वार्थ हुए साथी बने. प्रेम करे भरपूर ।। हिन्दी अनुवाद सहित -RRA-H-
** १४१ शेरः- दयामय अब दया करके, इस द्वार को खोलो।
आया मैं द्वार पे तेरे, अन प्रेम से बोलो ॥ आपके पास जो मानव, श्रद्धा लेकर के आते हैं ।
सुना है आप भी उसको, अपनी छाती से लगाते हैं । मंदिर का द्वार खुलते ही " बोल केशरियालाल की जय ! जय हो !! " जय-घोषसे मंदिर गूंज उठा । देवों ने आकाश से फूलों की वृष्टि कर श्रीपालकुवर का स्वागत किया !
नगर में चारों ओर कुंवर की चर्चा होने लगी। कोई कहता, लड़का क्या है ? चमकता सूर्य है, तो दूसरे ने कहा अजी रहने दो, सूर्य तो एक आग का गोला और राहु से दूषित है, भला कहाँ राजा भोज और कहां गांगली तेलन । आपने भी ठीक कहा, यह कुंवर तो भगयती चक्रेश्वरीदत्त निर्दोष, निरभिमानी, निस्पृह, श्रेष्ठ नररत्न है।
सम्राट कनककेतु श्री जिनेन्द्र दर्शन की बधाई सुन आनंदविभोर हो गये। वधाई देनेवाले भाट चारणों का उन्होंने बड़ी उदारता से सत्कार किया। वे उसी समय शीघ्र ही स-परिवार मन्दिर गये, वहां श्रीपालकुंवर का दिव्य रूप-सौन्दर्य और उनकी सविधि जिनेन्द्रभक्ति देखकर वे फूले न समाये । वाह रे वाह ! वास्तव में प्रभो! अंतराय कर्म का क्षय हुए बिना ऐसा सुयोग मिलना बड़ा दुर्लभ है । पश्चात् कनककेतु सपरिवार चैत्यवंदनविधि कर अपने अतिथि के साथ बाहिर सभामण्डप में आ गए। जिनवर बार उघाडतां जी, अचरिज कीधी तुमे वात रे। देव स्वरूपी दीसो आपणांजी,वंश प्रकाशो कुल जात रे ॥ कुं० ॥७॥ न कहे उत्तम नामते आपणुंजी, नविकरे आपरे आप वखाण रे। उत्तर न दीयो तेणे राय ने जो, कुंवर समय गुण जाण रे ।। कुं० ॥८॥ देखो अचंभी इणे अवसरे जी, हुऔ गयणे उद्योत रे ।। ऊँचे वदने जोवे तब सहु जी, एकुण प्रकटी ज्योत रे ॥ कुं० १।९।। विद्याचारण मुनि आपियाजी, देव घणां तस साथ रे। जइ गंभारे जिन वांदिया जी, थुण्या श्री जगन्नाथ रे ।। कुं० ॥१०॥