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आकुलता में दुःख है, जग आकुलता का मूल | तृष्णा आकुलता जनक, तृष्णा तीक्ष्ण त्रिशूल ।। हिन्दी अनुवाद सहित CHARACTRICARRRRRR १३९
जिम निर्णय करी जाणिये, बार उधारण हार । गंभारे आव्या जई, सहु को करे जुहार ।। ७ ॥ हवे कुवर करी धोतिया, मुख बांधी मुखकोश । जिणहर मांहे संचरे, मन आणी संतोष ॥ ८ ॥
आज सुबह से नगर में चारों ओर बड़ी चहल-पहल मच रही थी। जैन मंदिर के द्वार पर अपार भीड़ थी। राजकुमारी मदनमंजूषा के रूप-सौन्दर्य और वरमाला ने जनता के हृदय में गुदगुदी पैदा कर दी थी। दूर-दूर से हजारों नवयुवक बड़ी सजधज के साथ झुण्ड के झुण्ड चले आ रहे थे । इधर जिनदास भी श्रीपालकुंवर को साथ ले समय पर मंदिर में आ पहुंचे। सभी अपना अपना भाग्य परखना चाहते थे। क्रमशः एक के बाद एक मनुष्य जिन मंदिर के द्वार को छु छ कर अपनासा मुंह ले वापस लौटने लगे, किन्तु उनमें किसी व्यक्ति को भी सफलता न मिली । मदनमंजूषा ने ठंडी आह भर कर कहा- भगवान ! अब भी मेरी परीक्षा शेष है ? उसका दिल बैठने लगा |
श्रीपालकुंवर बड़े संतोषी थे, वे किसी की सफलता में कंटक न बन चुपचाप सब रंग देखते रहे । अन्त में जिनदास और नागरिकों का विशेष आग्रह देख वे स्नान कर शुद्ध वस्त्र पहन पूजन का थाल ले, श्री ऋषभदेव स्वामी के द्वार के निकट पहुँचे ।
दूसरा खंड-ढाल सातवीं
राग-मल्हार कुंवर गंभारो नजरे देखतांजी, बेहु उघडिया बार रे । देव कुसुम वरषे तिहांजी, हुबो जय जयकार रे ॥ कुं० ॥१॥ राय ने गई तुरंत वधामणीजी, आज सफल सुविहाण रे । देवी दियो वर इहाँ आवियोजी, तेजे झलामण भाण रे ॥ कु० ॥२॥ सौवन भूषण लाख वधामणोजी, देई पंचाग पसाय रे । सकल सज्जन जन परपर्योजी, देहरे आवे नर राय रे ।। कु०॥३॥