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इस अशरण संसार में शरण भेद विज्ञान । उनम करणी प्रभु लगन, अशा शाण महान ।। १५६ २
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श्रीपाल राम निषेध है। फिर भी मैंने यहां मोहवश तेरे लिये एक सुयोग्य वर के लिये संकल्पविकल्प किया, उसीका यह कटु फल है। खेद है कि आज हम दैविक प्रकोप से भगवान के दर्शन से वंचित हैं।
कनककेतु- मदनमंजूषा ! अब मैं यहां से बिना भगवान के दर्शन किये कदापि वापस न लौटुंगा । सम्राट की यह अटल प्रतिज्ञा सुन, उनका मंत्री मण्डल कांप उठा । सच है, राज-हठ, बाल-हठ और स्त्री-हठ का अन्त होना बड़ा कठिन है । प्रधानमंत्री ने राजा को बहुत कुछ समझाया फिर भी अपनी प्रतिज्ञा से जरा भी टस से मस न हए । कनककेतु अन-जल का त्याग कर चुचचाप भगवत् भजन में लीन हो गये। उनके परिवार ने भी चैसा किया । " यथा राजा तथा प्रजा" | चारों ओर सन्नाटा-सा छा गया । सभी निराहार अपने भजन में मग्न थे।
___ भगवत् भजन में अतुल बल, अबोध शक्ति और एक अनूठा चमत्कार है । विशुद्ध हृदय के भजन से इन्द्रासन भी डोलने लगता है । गस्तव में हुआ भी वही, अनशन के तीसरे दिन रात्रि के समय ब्राह्म मुहूत्ते में सहसा एक आकाशवाणी हुई। श्री ऋषभदेव की उपासिका चक्रेश्वरीदेवी ने अप्रकट रूप से कहा।
* आकाश वाणी * "राजन | आप लोग चिंता न करें। आप सभी निरापराध हैं। जिन मन्दिर के पट-मंगल होने का प्रमुख कारण है राजकुमारी मदनमंजूषा का भाग्योदय । यह द्वार जिस पुरुष-रत्न की दृष्टि और कर स्पर्श से खुल जाय आप उसे सचमुच निःसंदेह अपनी लाड़ली बेटी व्याह दें । मैं इसी माह में यहां एकनर-रत्न को शीघ्र ही ला कर उपस्थित करूंगी।"
भविष्यवाणी सुन सभी आनंदविभोर हो उठे। सम्राट कनकंतु ने अपने महल में लौटकर सानंद स-परिवार पारणा ( भोजन ) किया ।
दिन गणतां ते मास मां जी, ओछी छे दिन एक । तिणे जुए सहु वाटड़ो जी, करे विकल्प अनेक ।। प्रभु० ॥ २५॥ पुत्र सेठ जिनदेव नो जी, हुं श्रावक जिनदास ! प्रवहण आव्या सांभली जी, आव्यो इहां उल्लास ।। प्रभु० ॥२६॥