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निज हित करते प्रेम सत्र, स्वार्थ बिना नहीं बात । अशरण यह संसार है, स्वार्थ हेतु पर घात ॥ हिन्दी अनुवाद सहित * * * * * ৬१३५ चिना नहीं रहता है। आप क्षमानिधि हैं। मैं आपसे विनम्र भाव से बार बार क्षमा चाहती हूँ | अनेक स्त्री-पुरुष आपके दर्शन से वंचित हैं। अतः शीघ्र ही दर्शन दे हमें अनुग्रहित करियेगा ।
॥ १७ ॥
राय कहे वत्स सांभलो जी, दोष नहीं तुझ एह | दोष इहां छे माहरो जी, आणी तुझ पर नेह ॥ प्रभु० arat चिता चितव जी, जिणहर मांही जेण । ते लागी आशानना जी, वार देवाणा तेण ॥ प्रभु० ॥ १८ ॥ जिनवर तो रुपे नहीं जी, वीतराग सुप्रसिद्ध । पण एक कोई अधिष्ठायके जी, ए मुज शिक्षा दीघ ॥ प्रभु० ॥ १९ ॥ ए कवाड़ विण उघड़े जी, जाऊँ नहीं आवास । सपरिवार नृपने तिहांजी. ग हुआ उपवास | प्रभु० ॥ २० ॥ त्रीजे दिन निशि पाछली जो वाणी हुई आकाश । दोष नथी इहां कोई नो जी, कांई करे विषाद || प्रभु० ॥ २१ ॥ जेहनी नजरे देखतां जी, उघड़शे ए बार। ददनमंजूषा तणी थशे जी, तेहज नर भरतार || प्रभु० ।। २२ ।। ऋषभदेवनी किंकरी जी, हं चक्केसरी देवीं । एक मास मांहे हवे जी, आवुं वरने लेवी ॥ प्रभु० ॥ २३ ॥ सुणी तेह हरख्या सहुजी, राय ने अति आनंद | प्रेमे कीधा पारणा जी दूर गया दुःख दंद ॥ प्रभुः ॥ २४ ॥
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सम्राट कनककेतु ने कहा – बेटी ! तू सर्वथा निरपराध है। तू जरा भी चिंता न कर । जिनेन्द्र देव वीतराग हैं। वे किसी का मंगल अमंगल नहीं करते । सदैव मंगल और अमंगल मानव के स्वभाव और विचारधारा के आधीन है ।
" कृतः कर्म क्षयेो नास्ति" प्राणीमात्र को अपनी भूल का फल भोगना ही पड़ता है । जिन मन्दिरों में प्रभु स्तवन, आत्मचित के सिवाय आर्त्तध्यान, रौद्रध्यान करना सर्वथा