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माता-पिता कलत्र सुत, खा जाते सब हार । काल दबोचे पकड़ जब, चले न कुछ अधिकार ।। १३४ -*
METARA- श्रीपाल रास एम उभो सूने मनेजी चिंतातुर नृप होय । इण अवसर अचरिज थयोजी, ते सुणजो सहुकोय ॥ प्रभु० ॥ ११ ॥
औसरती पाछी पगेजी, जिन मुख जोती सार । आवी गंभारा बाहिरे जी, जब ते राजकुमारी ।। प्रभु० ॥ १२ ॥ ताम गंभारा तेहनाजी, देवाणा दोय वार । हलाव्या हाले नहींजी, सरके नहीं लगार ।। प्रभु० ॥ १३ ॥ राजकुंवरी इम चितवेजी, मन आणि विषवाद । मैं कीघो आशातनाजी, कोईक धरी प्रमाद ।। प्रभु० ॥१४॥ धिक मुन जिन जोवा तणोजी, उपनो एह अन्तगय । दोष सयल मुज सांसहोजी, स्वामी करी सुपसाय ।। प्रभु०॥१५॥ दादा दरिसण दीजियेजी, ए दुःख मे न खमाय । छोर होय कछोरुओजी, छेह न दाखे माय ॥ प्रभु०॥१६॥
एक अद्भुत घटनाका परिचय जोर से धडाके की आवाज सुन सैकहों स्त्री-पुरुष मंदिर की और दौड़ पड़े । कनक्रकेतु ने चौंक कर कहा। हाय! मैं अपने भन में कुछ और ही सोच रहा था किन्तु यहां तो लेने से देना भारी हो गया। मंदिरजी के प्रमुख द्वार (गंभारे) से राजकुमारी के बाहिर आते ही सहसा पट मंगल का होना साधारण सी बात नहीं ।
राजा का संकेत पाते ही लोगोंने द्वार खोलने के उनेक प्रयत्न किये फिर भी किसी को सफलता न मिली। यह दृश्य देख मदनमंजूषा का हृदय भर आया। उसकी आंखों से टप-टप आंसू बहने लगे। हाय ! हाय !! मंदरजी के द्वार बंध होने का निमित कारण एक मात्र मै हुँ । संभव है, भगवान की आंगी करते समय मुझ से कोई महान् आशातना हुई हो ।
नाथ ! अब आप मेरी अधिक कसौटी न कर क्षमा करियेगा | पूत कपूत होने पर भी माता-पिता अपना स्वभाव नहीं छोड़ते हैं । अन्त में वात्सल्यभाव से उनका हृदय द्रवित हुए