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मरण काल जब सामने, बचा सके नहीं कोय | डाक्टर, वैद्य, हकीम सय, खड़े देखते होय ।। हिन्दी अनुवाद सहित A RORAKHA
RIR२१३३ उनके चार पुत्र थे किन्तु एक पुत्री के विना राजमाता का सारा संसार सूना था । प्रायः महिलाओं को अपनी बेटी-जाई के लाह-वार का विशेप मोह रहता है। पश्चात् कई दिनों के बाद महारानी की मनोकामना सफल हुई । उनके यहां एक अति सुन्दर गौरांगी मृगनयनी कन्या का जन्म हुआ । उसका बड़े महोत्सव के साथ मदनमंजूषा नाम रखा गया । मदनमंजूपा अब युवावस्था में हैं।
उसके दादा बड़े धर्मात्मा और दानवीर थे। उन्होंने इसी पर्वत के शिखर पर एक विशाल बड़ा सुन्दर कलापूर्ण मंदिर बनवाया था । उसमें प्रथम तीर्थंकर श्री ऋषभदेव प्रभु की स्वर्णमयी एक दिव्य प्रतिमा विराजमान हैं।
हमारे सम्राट कनककेतु और राजकुमारी मदनमंजूषा को श्री जिनेन्द्रदेव पर पूर्ण श्रद्धा है ! वे दोनों सदा त्रिकाल प्रभुभक्ति और भजन में लीन रहते हैं !
एक दिनजिन आंगी रवीजी, कुंवरीए अति चंग । कनकपत्र करी कोरणीजी, बिच बिह स्तन सुरंग ।। प्रभु० ॥ ८ ॥ आव्यो राय जुहारवाजी, देखी सुता विज्ञान | मन चिंते धन मुज धुआजी, शणसठ कला निधान ॥ प्रभु० ॥ ९ ॥ ए सरोखो जोवर मिलेजी, तो मुज मन सुख थाय । साचो सोवन मुद्रडीजी, काच तिहां न जढाय ॥ प्रभ० ॥१०॥
सम्राट कनककेतु को नियम था कि प्रतिदिन भगवान के दर्शन करके ही अन्नजल ग्रहण करना । एक दिन वे मंदिर में दर्शन करने गये, उस समय वहां राजकुमारी मदनमंजूषा बहुमूल्य हीरे, पन्ने, माणिक, मोती और स्वर्णपत्र के बेल बूटों से भगवान की सुन्दर आंगी बना रही थी।
कनककेतु अपनी लाडिली बेटी की अनुपम श्रद्धा भक्ति कलाचातुर्य देख मुग्ध हो गये । वे अपने मन ही मन कहने लगे, रे विधाता ! मदनमंजूषा केवल चौसठ कलानिधान ही नहीं किन्तु यह एक धर्मनिष्ठ भी है। मेरी मनोकामना है, कि आपने इसको जितनी सुन्दर और कलापूर्ण बनाई है, उसी प्रकार इसको सुन्दर सुयोग्य आईत धर्मोपासक धर्मनिष्ट कोई वर मिले तब तो तुम्हारी विशेषता है। बस्तत्र में स्वर्ण की अंगूठी में बहुमूल्य रत्न ही शोभा देता है, न कि एक बनावटी कांच का टुकडा ।