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नहीं रक्षक नहीं शरण है, यह संसार विचित्र । करनी का हो फल मिले, करनी को पवित्र ॥ हिन्दी अनुवाद सहित
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रंगरेलियां कर रहा है ? सच है, बिना परिश्रम का माल पाकर यह क्यों चिंता करने लगा ? बड़ा आलसी है। हम लोग अपने माल का राज्य कर चुका कर इतना कड़ा परिश्रम करते हैं, फिर भी शांति नहीं ।
जिस प्रकार दूध का भरा कटोरा देख बिल्ला ललचा जाता है, उसी प्रकार सेठ का भी यही धुन सवार हुई, कि उदार सहृदय श्रीपालकुंवर के माल से मनमाना लाभ प्राप्त करना । धवलसेठ सीधे कुंवर के पास पहुँचे, और अपनी लच्छेदार बातों से उनसे उनके अढ़ाई सौ जहाज के माल तथा अन्य वस्तुओं के क्रय विक्रय की स्वीकृति प्राप्त कर वे अनेक संकल्प-विकल्प करने लगे । सउ समय उनके हर्ष का पार नहीं ।
परिवार ॥ ७ ॥
इण अवसर आयो तिहां, अवल एक असवार ! सुगुण सुरूप सुवेण जस, आप समो कुंवर तेडी आदरे, बेसार्यो निज अद्भुत नाटक देखतां हवे नाटक पूरो थये कुण कारण कुण ठाम थी, पाउ धार्या अम पास ॥ ९ ॥
ते पाम्पो
पूछे कुंवर
पूछे
तास ।
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पास । उल्लास ॥ ८ ॥
एक दिन एक नाट्याचार्य अपनी मंडली को साथ ले वे बड़े उत्साह से ताललय के साथ श्रीपाल कुंबर को अपनी कला का परिचय दे रहे थे । उनका संगीत इतना मधुर और आकर्षक था, कि उसे श्रवण कर कुंवर आनंद - विभोर हो गये । तम्बू के बाहर कई स्त्री-पुरुष स्तम्भित हो गये। वे अनिवार्य काम होने पर भी वहां से एक पैर भी आगे न बढ़ सके |
युवक जिनदास तो भीड़ को चीर कर सीधा तम्बू के अन्दर जा पहुँचा । कुंवर की उस पर दृष्टि पड़ते ही उन्होंने बड़े प्रेम से हाथ पकड़ अपने पास बिटा लिया । वह रूप सौन्दर्य और वेषभूषा से बड़ा भद्र मालूम होता था ।
जिनदास भी श्रीपालकुंवर का विनम्र स्वभाव और नाट्याचार्य की विचित्र कला देख चड़ा सुग्ध हो गया । वह मन ही मन कहने लगा, धन्य हैं । यह वास्तव में मानव नहीं देव है । यदि इनके स्थान पर कोई दूसरा व्यक्ति होता तो मेरा अपमान किये बिना न रहता ।