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ना कुछ सब कुछ धन गये, कहलाते सरकार । मूर्ख पतित आनंद करे, विज्ञ शून्य अधिकार ।। १२८ SARKARISHCHRIS श्रीपाल रास नांगर उपड़ाव्यारे , सढ़ दोर चढाव्यारे, वहाण चलाव्या वेगे खलासये रे। नित नाटक थावेरे, गुणिजन गुण गावे रे, वर बहू सोहावे बहू गोखड़े रे ॥१६॥
बंदरगाह पर अपार भीड़ थी । महाकाल राजा के परिवार, मंत्री-मंडल और नागरिकों ने वर-वधू को हदय से आशीचांद दे उनका बहुमूल्य वस्त्रों से सरकार किया । जहाजों के प्रस्थान की ध्वनि (सीटी) मंगल बाजों का शब्द सुन जनता का हृदय भर आया । जहाज के झरोखे में दोनों पति-पत्निी बड़े भले मालूम होते थे, उन्हें देख माता-पिता की आंखों से टप-टप आंसू टपकने लगे ।
जहाजों के लंगर उठे और वे बड़े वेग से जनता की दृष्टि से ओझल हो गये । सभी लोग श्रीपालकुंवर के गुणगान करते हुए वापस अपने स्थान पर लौट गये ।
___मार्ग में महाकाल राजा के नर्तक नट-नटियाँ अपनी अनूठी कला-चातुर्य से दोनों पति-पत्नी का मनोरंजन करती चली जा रही थी, किन्तु श्रीपालकुंवर का एक ही लक्ष्य था, श्री सिद्धचक्र का स्मरण । आत्म-रमणता ।
मन चिंते सेठ रे, में कीधी वेठ रे, सायर ठेठ फल्यो जुओ एहने रे। जे खाली हाथे रे, आव्यो मुझ साथे रे, आज ते आथे संपूरण थयो रे॥१०॥ जल इंधण माटे रे, आव्य इणे वाटे रे, परण्यो रण साटे जुओ सुदगै रे। लखमी मुझ आधी रे, इणे मुहियां लाधी रे, दोलत वधी देखो पलकमां रे ।।१८॥ कीम मांगु भाडं रे, खत पत्र देखाडु रे, देशे के आड अवलु बोलशे रे। कुंवर ते जाणोरे, मुख मोटो वाणी रे, भाडु तस आणी आपे दश गणुं रे ॥१९॥ पाम्या अनुकरमे रे, नर म जिन धरमे रे, वहाग स्यणदिवे खेमे सह रे। नागर जल मेल्यारे,सढडोर संकेल्यारे, हलवे हलवे लोकसहुत्यांउतयों रे॥२०॥ बीजे इम खण्डे रे, जुओ पुण्य अखंडे रे, एकण पिंडे उपार्जन करी रे। कुंवरश्रीपाल रे, लह्या भोग रसाल रे, पांचवीं ढाल इसी विनये कही रे ॥२१॥