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________________ राजा राना तक मिटे, चला न कुछ अधिकार । ज्यों त्यों कर जोते रहे जीवन के दिन चार॥ हिन्दी अनुवाद सहित 513 8 १२७ उसरदेसं दड्ढेल्लय विज्झइ वणदवो पप्प । इयमिच्छनाणुदए उवसम-सम्मं लहइ जीवो ।। जिस प्रकार ऊसर और दग्ध भूमि को प्राप्त होकर दाकानि स्वयमेव-अपने आप बुझ जाती है, उसी तरह मिथ्यात्व के उदय में न आने पर जीव उपशम सम्यक्त्व पाता है। अथवा अनंतानुबन्धी क्रोध-मान-माया और लोभ तथा समकित मोहनीय, मिश्र मोहनीय और मिथ्यात्व की तीन प्रकृतियां ऐसे सात प्रकृतियों के उपशम से हाने वाला समकित औपशमिक कहलाता है । क्षयोपशमिक सम्यक्त्वः उदय-प्रात मिथ्यात्व मोहनीय का क्षय और उदय में नहीं आये हुए मिथ्यात्व का उपशम और सम्यक्त्व मोहनीय के उदय से होने वाला सम्यक्त्व शायोपशमिक कहलाता है। क्षायिक सम्यक्त्व: पूर्वोक्त सात प्रकृतियों के क्षय से होने वाला क्षायिक है । क्षायिक समकित अप्रतिपाती है, अर्थात् एक बार आ जाने पर फिर नहीं जा सकता है। शेष दो आने पर पुनः जा भी सकते हैं । जिसने समकित का स्पर्श कर किया वह संसार को परिमित कर देता है। और अर्द्र पुद्गल-परावर्तन काल में अवश्य मोक्ष जाता है । सम्यक्त्व की बात सुन कर राजकुमारी मदनसेना के रोम र खड़े हो गये। उसने कहा, माताजी ! वास्तव में प्रामातिपात, मृषावाद, अदत्तादान, मैथुन आदि अठारह पाप-स्थानक में यदि कोई महान् पाप है तो एक मात्र मिथ्यात्व हो है। इस मिथ्यात्व को निर्मूल कर सम्यक्त्व रत्न की प्राप्ति में पुरुषार्थ करने वाला आत्मा ही धन्य है, कृत-पुण्य है। मैं मी आज से देव अरिहंत, गुरु निग्रंथ, और सन्न-देवणित धर्म का श्रद्धान कर निश्चित हो सम्यक्त्वप्राप्ति में पुरुषार्थ करूगो।। राजमाता अपनी प्यारी बेटी मदनसेना और श्रीपालकुंबर के भाल पर कुंकुम का तिलक कर वह उन्हें पहुँचाने बंदरगाह की और चल दी। साजन सोहाव्या रे, मिलणा बहु लाव्या रे कांठेसवि आव्या आंसू पाढतारे। वरबह बालाव्या रे,मावितरदुःख पाव्यारे,तूर वजड़ाव्या हवे प्रयाण नांरे ।ले।
SR No.090471
Book TitleShripalras aur Hindi Vivechan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNyayavijay
PublisherRajendra Jain Bhuvan Palitana
Publication Year
Total Pages397
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Biography, & Story
File Size12 MB
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