SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 135
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ भोजन पानी अशुद्ध यदि, पैदा होय कुबुद्धि । कुमति उपद्रवकारिणी, सांचे नहीं दुर्बुद्धि ।। हिन्दी अनुवाद सहित RRCHASINHERIHARIHARAN १२५ आत्मा का स्वाभाविक धर्म, सम्यक्त्वः-- सम्यक्त्व का अर्थ है. निर्मल दृष्टि, सच्ची श्रद्धा और सच्ची लगन । सम्यक्त्व हो मुक्तिमार्ग की प्रथम सीढी हैं। जब तक सम्यक्त्व नहीं हैं, तब तक समस्त ज्ञान और चारित्र मिथ्या है । जैसे अंक के पिता मिन्दुत्रों को लामो कोर ब ने र भो, उसका कोई अर्थ नहीं होता, उससे कोई संख्या तैयार नहीं होती, उसी प्रकार समकित के बिना ज्ञान और चारित्र का कोई उपयोग नहीं, वे शुन्यक्त निष्फल हैं। अगर सम्यक्त्व रूपी अंक हो, और उसके बाद ज्ञान और क्रिया (चारित्र) हो तो जैसे एक के अक पर प्रत्येक शून्य से दस गुनी कीमत हो जाती है, वैसे ही वे ज्ञान और चारित्रदान, शील,तप जप आदि मोक्ष के साधक होते हैं। मुक्ति के लिये सम्यग्दर्शन को सर्वप्रथम अपेक्षा रहती है। सम्यग्दर्शन से ही ज्ञान और चारित्र में सम्यमत्व आता है। इसी लिये दर्शन, ज्ञान और चारित्र तोनों ही भाव सम्यक्त्व होते हुए भी सम्यक्त्व शब्द सम्यग्दर्शन के अर्थ में हो रूढ़ हो गया है। यह सम्यग्दर्शन को प्रधानता सूचित करता है। सम्यक्त्व आत्मा का स्वाभाविक धर्म है, परन्तु अनादि काल से दर्शन मोहिनी कर्म के कारण आत्मा का यह गुण ढक गया है। जंसे ही दर्शन-मोहिनीय कर्म दूर हुआ कि सम्यक्त्व गुण इस प्रकार प्रकट हो जाता है, जैसे वादलों के दूर होने पर सूर्य । इस प्रकार दर्शन-मोहनीय के दूर होने को और सम्यक्त्व गुण प्रकट होने को समकित को प्राप्ति होना कहा जाता है । समकित की प्राप्ति दो तरह से होती है: निसर्ग से और अधिगम से । तत्त्वार्थ सूत्र में कहा है-"तन्निसगीदधिगमाद्वा"। जो सम्यक्त्व बिना गुरु आदि के उपदेश से होता है वह निसर्गज और जो शास्त्र वाचन आदि से हो वह अधिगमज कहलाता है। सम्यक्त्व प्राप्ति का क्रमः-- जैसे बड़े वेग से बहने वाली नदी में एक पत्थर का टुकडा दूसरे पत्थरों ओर बड़ी बड़ी चट्टानों से टकरा टकरा कर गोल-मोल हो जाता है, उसी प्रकार यह जीव नाना-योनियों में जन्ममरण कर और शारीरिक-मानसिक कष्टों को सहन करता हुआ कर्मों की निर्भर करता है। उस के प्रभाव से उसे पांच प्रकार की लब्धियां प्राप्त होती हैं। (१) क्षयोपशमलन्धिः अनादिकाल से परिभ्रमण करते हुए संयोगवश ज्ञानावरणादि आठ कर्मों की अशुभ प्रकृतियों के अनुमाग (रस) को प्रति समय अनन्त गुणा कम करना क्षयोपशम-लब्धि है। [२] विशुद्धिलब्धिः इस प्रकार अशुभ प्रकृतियों के अनुभाग के मन्द होने से शुभ परिणाम उत्पन होते हैं। यह विशुद्धलब्धि है।
SR No.090471
Book TitleShripalras aur Hindi Vivechan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNyayavijay
PublisherRajendra Jain Bhuvan Palitana
Publication Year
Total Pages397
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Biography, & Story
File Size12 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy