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जग प्रसिद्ध यह उक्ति है, व्यापक देश विदेश। जैसा नृप बेसी प्रजा, संशय का नहीं लेश ॥ हिन्दी अनुवाद सहित
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एक दिन श्रीपालकुंवर ने अपने ससुर से कहा श्रीमान्जी ! हमें बड़ी दूर जाना है | अतः अब आप विलंब न कर, हमें जाने की अनुमति प्रदान करें । बिदा का नाम सुनते ही राजा का हृदय भर आया । उसने वस्त्र से अपने आंसू पोंछते हुए कहा, कुंवर साव ! आप अभी यहीं विराजें, जल्दी न करें । जमाई का विशेष आग्रह देख, महाकाल ने सोचा, कहीं महमानों से भी घर बसा है ? कदापि नहीं । पुत्री की शोभा और हित हैं, अपने अपने ससुराल में । अब इनको अधिक रोकना उचित नहीं ।
राजा ने अपनी बेटी - जमाई को विदा देने के लिये अच्छे सुन्दर रेशमी जरी के बहूमूल्य वस्त्र, रत्नजड़ित आभूषण और एक बढ़िया गगनचुम्बी, सात खण्ड का जुंग नामक जलयान बनवाया । उसमें कलापूर्ण चौंसठ स्तंभ, झरोखे, मीठे जल का अच्छा साधन था स्थान स्थान पर सुनहरे रंगीन चित्र, आकर्षक पुतलियां; मनोहर सोने-बैठने के साधन, क्रीडांगन की सुन्दर व्यवस्था थी, जहाज को ध्वजापताकाएं, मणि-मोतियों के दोनों से सजा, शुभ पूर्व में महाकाल अपने प्रधान मंत्री मण्डल, नागरिकों और परिवार के साथ प्रिय पुत्री मदनसेना को पहुंचाने सागरतट पर आया | जमाईराज के स्वागत सूचक शहनाई, ढोल, नगारे, विदा के मंगल गीतों से सारा बन्दरगाह गूंज उठा ।
* मा की, बेटी को सीख
रानो - मदनसेना ! दाम्पत्य जीवन की दिव्यता - शोभा तभी है जब कि पति-पत्नी सत्ता का मोह छोड़कर परस्पर सेवाभाव, त्यागवृत्ति को अपनाए । अब तुम पराये घर जा रही हो । ससुराल में देव, गुरु, धर्म, स्ववर्मी बन्धु, देवर जेष्ठ, नणद भोजाई, सास-ससुर, दीन-दुःखी, रोगी और अपने aste पड़ोसी की सेवा का सारा भार तुम्हारे पर है। इसे ठीक तरह से निभाना ।
मदनसेना ! हृदय नहीं चाहता कि तू हमारी आंखों से ओझल हो, किन्तु कन्या की शोभा अपने ससाल में ही है, अतः तुझे आज विवश हो विदा देना है ।
विवाह एक ऐसी विचित्र बात है, कि जिस घर को कभी देखा नहीं वहीं घर अपना हो जाता है। माता-पिता के जिस घर में जन्म हुआ है, जहां बचपन बीता और जहां के रक्त-मांस से शरीर बना, जहां की स्मृतियों में मन बसा है, वह पराया हो जाता है । एक दिन जो पराये और अनजान थे, वे अपने हो जाते हैं । जो सदा के परिचित थे वे छूटकर दूर पड़ जाते हैं ।
raashi सर्व प्रथम ससुराल में बिदा होती हैं, तब वे भय से भरी आशंका से सहमी चित्तवृत्ति में डांवाडोल अनिश्चित भविष्य की झिलमिल अभिलाषाओं में झूलती हुई रोती हैं | बेटो ! अनादिकाल से यहा होता आया है। मैं भी एक दिन बहू बनकर इस घर में आई थी।