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रत्नत्रयी का धाम है, अकल कला गुणधान । अविनाशी के ध्यान से, होता अमृत पान । हिन्दी अनुवाद सहित
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पुण्योदय, कर्म लय और पुण्योदय की जननी है, श्री सिद्धचक्र - आराधना । प्रिय पाठक और श्रोताओं को चाहिए कि वे जीवन में एक बार अवश्य ही श्री सिद्धचक्र की आराधना कर अपना जीवन सफल बनाएँ ।
दोहा
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महाकाल श्रीपालनुं, देखी भुजबल तेज । चित चमक्यो इम विनवे, हियडे आणी हेज ॥ १ ॥ मुज मंदिर पावन करो, महेर करो महाराज । प्रगट्यां पूत्र भव कर्या, पुण्य अमारां आज ॥ २ ॥ तुम सरीखा सुपुरुष तणां अम दर्शन दुर्लभ । जिम मरुधरना लोक ने, सुर-तरु कुसुम सुरभ ॥ ३ ॥
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महाकाल नृप श्रीपालकुंवर का रूप सौंदर्य, सहृदयता, बल-पुरुषार्थ और अनोखा साहम देख मुग्ध हो गये । उन्होंने कुंवर से कहा, श्रीमान्जी ! आप कृपया बच्चरकूल में पधार कर राजमहल को पावन करें । सत्पुरुषों के दुर्लभ दर्शन का लाभ तो कभी भाग्य से ही मिलता है— जैसे कि राजस्थान - मारवाड़ की प्रजा को कल्पवृक्ष के फूलों की सुगन्ध का योग किसी पूर्वभव के शुभ कर्मों के उदय से ही मिलता है । आज हमारा सद्भाग्य है कि आपका और हमारा समागम हुआ है ।
बोलावा विण एकलो, चाली न शके दोन । धवलसेठ तव विनवे, इणी परे धई आधीन ॥ ४ ॥ प्रभु तुमने छे सहु देखी पुण्य पहूर | पण विलंब थाए घणुं, रत्न द्वीप छे दूर ॥ ५॥ कुंवर कहे नर रायनुं, दाखिण केम लंडाय | तिणे नयरी जोवा भणी, कुंवर कियो पसाय ॥ ६ ॥ हाट सज्यां हीरा गले, घर घर तोरण माल । चहुटे चहुटे चोकमां नाटक गीत रसाल ॥ ७ ॥