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________________ विषय रूप अंकुर थो, टले ज्ञान ने भ्यान । लेश मनिरापानथी. छाके जेम अमान ।। १०४ - - - - -*-* ॐ श्रीपाल गम कुंवरजी ! स्थान के लिये तो मेरी ना नहीं, किन्तु मासिक किराया सौ स्वर्ण मुद्रा से कम न होगा । श्रीपाल कुवर ने अपनी स्वीकृति प्रदान कर कहा, आप स्थान का प्रबंध कर दें। द्वितीय खण्ड-ढाल चौथी राग - मल्हार (जी हो जाण्यु अवधि प्रयुंजने ) जी हो कुंवर बेठो गोखड़े, जी हो महोटा वहाण मांहि । जी हो चिहुं दिशि जलधि तरंगना, जी हो जोवे कौतुक त्यांहि, सुगुण नर पेखो पुण्य प्रभाव । जी हो पुण्ये मन वांछित मले, जी० दूर टले दुःखदांच ॥ सु० १ ॥ जी हो सद हंकायों सामटा, जी हो पूर्या घण पत्रणेण । जी हो वड़ वेगे वहाण बहे, जी हो जोयण जाणे खणेण ।। सु० २ ॥ जी हो जल हस्ति पर्वत जिस्या, जी हो जलमां करे कल्लोल । जी हो मांही माहे झूझता, जी उछाले कल्लोल ॥ सु० ३ ।। जी हो मगर मत्स मोटा फिरे, जी ही सु सुमार केई कोड़ी। जी हो नक चक्र दीसे घणा, जी हो करता दोड़ा दोड़ी । सु. ४ ॥ जी हो जाता कहे पंजरी, जी हो आज पवन अनुकूल । जी हो जल इंधण जो जोईये जी हो आव्यु बब्बर कूल ।। सु०५ ।। - प्रिय पाठको ! मानव एक ओर महीनों दरदर भटककर अपने समय और रक्त का भोग देता है, तब कहीं उसे बड़ी कठिनाई से सौ दो सौ रुपये पल्ले पड़ते हैं। वह भी जल में दिखाई देनेवाले चन्द्र के समान अस्थाई, तो दूसरी और श्रीपाल कुवरको केवल जहाज पर चढ़कर सिंहनाद अर्थात श्रीसिद्धचक्र भगवान की जय बोलते ही सहज एक लाख स्वर्ण मुद्राएं और सुयश की प्राप्ति हुई। यह क्यों ? इसे आप क्या कहेंगे? यह है प्रबल पुण्योदय और पूर्व भव में की हुई श्री सिद्धचक्र आराधना का मधुर फल । ___ आप जितना श्रम करते हैं, उसका चतुर्थाश भी आपको बदला नहीं मिलता है। सुख के बदले दुःख, लाभ की जगह हानि, बात बान में अपयश, कलह, प्रत्येक विघ्न, निराशा का सामना । यह क्यों? इसे आप क्या कहेंगे। यह है आपके मन
SR No.090471
Book TitleShripalras aur Hindi Vivechan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNyayavijay
PublisherRajendra Jain Bhuvan Palitana
Publication Year
Total Pages397
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Biography, & Story
File Size12 MB
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