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आ सघला संसारनी, रमणो नायक रूप । ए त्यागो त्याग्युसहु, केवल शोक स्वरूप ।।। १०२१ - %AKKA
R -6 श्रीपाल रास का होना स्वाभाविक था । श्रीपालकुंवर ने कहा, सेठजी ! इस कार्य का आप मुझे क्या श्रम देंगे? अस, श्रमका नाम सुनते ही सेठ को बुखार आ गया । वे चुस्त हो बोले अच्छा : में आपको एक लाख स्वर्ण मुद्राएं भेंट करूंगा। अब विलम्ब न करें । इम गाड़ी को पार लगा दें, तो गंगा नहाए ।
श्रीपाल कुंवर आत्मविश्वास और बडी श्रद्धा से श्री सिद्धचक्र का स्मरण कर जुंग नामक बड़े जहाज पर चढ़े । चढ़ते ही वहां पर उन्हों ने बडे जोर से सिंहनाद किया, अर्थात् श्री सिद्धचक्र भगवान की जय हो! जय हो !! जयघोष से मारा आकाश गूंज उठा । श्री सिद्धचक्र का नाम सुनते ही जहाजों को स्तंभित करनेवाली दुष्ट व्यन्तरी उसी समय वहाँ से नौ दो ग्यारह हुई। सारे जहाज एकसाथ डिगमिगाने लगे। जहाजों को बन्धनमुक्त देख धवल सेठ की जान में जान आई । जहाज चालक, दिशा दर्शक, प्रवासी व्यापारी आदि के हृदय में एक प्रसन्नता की लहर दौड गई। चारों ओर मंगल गीत, ढोल नगारे बाजे बजने लगे । जनता श्रीपाल कुंवर का अभिनन्दन कर उनकी मुक्तकंठ से प्रशंसा करने लगी। धन्य है, धन्य है सत्पुरुष । सर्वत्र स्थान स्थान पर यही एक ध्वनि सुनाई देती थी।
ग्रन्थलेखक श्रीमान् विनयविजयजी महाराज कहते हैं कि यह श्रीपाल-गम द्वितीयखण्ड की तीसरी ढाल सम्पूर्ण हुई। जिस प्रकार श्री सिद्धचक्र के प्रभाव से धवलसेट के पांचसौ जहाज तिरे उसी प्रकार इस श्रीपाल-रासक पाठक और श्रोतागण श्री सिद्धचक्र की आराधना कर भवसागर तिर ।
दोहा ते देखी चिन्ते धवल, चट्यो चिंतामणि हाथ । . बड़ो बखत जो मुज हुए, तो ए आवे साथ ॥१॥ एक लाख दीनार तस, देइ लाग्यो पाय । कर जोड़ी ने विनवे, वात सुणो एक भाय ॥२॥ वर्ष प्रत्ये एकेक ने, साहस देऊं दोनार । सेवा सारे सहस दश, जोध भला झुंझार ॥३॥ तुमने मुँह मांग्या दिऊं, आओ अमारी साथ | ए अवधारो विनती, अमने करो सनाथ ॥४॥