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बधिर अन्य इ६ लोक में धन्ययाद के पात्र। चूगलो वे सुनते नहीं, लेखे न दुर्जन गात्र ।। ९४ -RREA R
-5२२ श्रीपाल रात अचल अचल कैलाश हो, कनक रजत ते पूर । लोभी तृण सम मानता, तृष्णा नभ सी दूर ॥ लोभी धन में रत रहे, मूर्ख भोग रत जान । मेधावी नर शान्ति में, मिश्र तीन में मान ।।
रात्रि के समय सेठ शेय्या पर लेटे लेटे कई संकल्प-विकल्प करते कभी पंसारी बनते तो, कभी सर्राफ, कभी कपड़े बाजार के अधिपति बनने की सोचते । क्षण क्षण में उनके विचार बदलते रहते । अनेक बार करवटें बदलने पर भी उनको आँखों में नींद नहीं आई। अंत में उन्हें समुद्र-यातायात का धन्धा करन की सूझी ।
एक, जुंग वहाण कियु, कुआ थम जिहाँ सट्ठ । कुआ थंभ सोले सहित, अवर जुंग अड़सठ्ठ ॥४॥
वड़ सफरी वहाल घणां, बेड़ा वेगडा द्रोण । ' शिल्ला खूप आवर्त म, भेद गणे तस कोण ॥५॥ इणी परे प्रवहण पांच, पूर्या वस्तु विशेष ।। बंदर मांहे आणिया, पामी नृप आदेश ॥६॥
मालिम पट पुस्तक जुए, सूखाणी सूखाण ।
धू अधिकारी धूनणी, दोरी भरे निशान 10 : करे किराणी साचवण, नाखूदा ले न्याउ । वायु परखे पंजरी, नेजामा निज दाउ ॥८॥
खरी मसागति खारू आ, सज्ज करे सर दोर।।
हलक हलेसा हाल वे, बहु बेठा बिहुँ कोर ।।९।। पंचवर्ण ध्वज वावटा, शिर करे चामर छत्र । वहाण सवि शणगारिया, माहे विविध वाजिंत्र ॥१०॥