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॥ श्री उपदेशसप्ततिका मूखम् ॥
तित्यंकराणं चरणारविंद, नमिन्नु नीसेसमुहाण करें। मूढोऽपि चासेमि हिढवएस, सुणेद जवा सुकयप्पवेसं ॥१॥ सेविस समय विसालं, पाखिजा सील पुण सबकालं । न दिजाए कस्स वि कूडवालं, बिंदिज एवं जवपुरस्कजाखं ॥२॥ पयासियत्वं न परस्स बिई, कम्मं करिजा न कयाऽवि रुदं । मिचेण तुटलं च गणित खुई, जेणं नविता तुह जीव जई ॥३॥ रोगेहि सोगेहि न जाव देहं, पीडिताए वाहिसहस्स गेहं । तावुऊया धम्मपहे रमेह, बुहा मुद्दा मा दियहे गमेह ॥ ४॥ जया उदिलो नषु कोऽवि वाही, तया पणछा मणसो समाही।
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