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४॥ १३१ ॥ जाए पभायसमए पढमघरं तस्स इट्टवायस्स । सोवण्णमयं पिक्खिय सो जाओ विम्हिओ वित्ते
॥ १३२ ॥ अह पालित्तयसूरिं नमसणत्थं कयावि रिसहस्स । मुंडराईराम्म पत्तं बंदिय नागजुणो भणइ ॥१३३॥ भयचं ! करिय पसायं पयपंकयलेययिज्वसिद्धिं मे । देसु तओ सूरीविहु तग्गुणगणरजिओ भणइ ॥ १३४ ॥ जइ । महसि महिमनिलयं, पलयं पावाण वीयरायमयं । ता पत्ते सुवियत्ते तुमंमि विजं निवेसेमि ॥ १३५ ॥ अह सो साबयधम्म सूरीणं लेइ पायमूलम्मि । पयलेबविचसिद्धिं, तेविहु तस्स य पयच्छति ॥ १३६ ॥ सिरिसरोंजयतलह-६ दियाइ नागज्जुणेण निम्मयियं । सूरीणं नामेणं सिरिपालित्तयपुरं तझ्या ॥ १३७ ॥ अह सालिवाहणनिवे परिसाए । सासणम्मि आसीणे । केइवि चउरो रिसिणो यिरइयगंथा तर्हि पत्ता ॥ १३८ ॥ पडिहारमुहेणं ते, नत्थ ठिया 1 |चेव पुच्छिया रण्णा । किं सत्यं किं माणं केण कयं? तेवि जपंति ॥ १६९ ॥भेसजधम्मनिवनीइ-कामसत्पाणि | लक्खमाणाणि । अत्तेयकविलवहफइपंचालेहिं कयाइति ॥ १४० ॥ राया सुणिऊण इमं तेसि परिक्खाकए पुणो भणइ । सो उ न खमो इत्तिय-मित्तं संसिवह तो गंथं ॥ १४१ ॥ काउं अद्धं अद्धं निवपासे तो गया तहेत्र पुणो । अद्धद्धयकरणेणं इगइगपायं करिय पत्ता ॥ १४२ ॥ चत्तारियि तो रण्णा पवेसिया नियसहाइ पुट्ठा य । साइंति |देव ! नियनियनामकं पयमिणं सुणसु ।। १४३॥ जीणे भोजनमात्रेयः, कपिलः प्राणिनां दया । बृहस्पतिरविश्वास, पञ्चालः स्त्रीषु मार्दवम् ॥ १४४ ॥ तत्तो राया तुट्ठो तेसिं जा देव पीरदाणाई । तो अत्तेओ साहइ नरिंद ! लुक्खेण ।