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________________ दत्त्वा ॥ तृतीया समवसारेऽथ स्वयंप्रभजिनेशितुः। गत्या समगृहीद्दीक्षां विवेकभरसंकुलाम् ।।५।। अन्वयार्थ - तत्र = उस नगर में, विमलवाहः = विमल वाहन नामक, राजा = राजा, अभूत् = था, काललब्धितरु = काललब्धि आ जाने से, असौ = इस राजा ने नभसि = आकाश में, मेघः - बादल, उत्पन्नः = उत्पन्न हुये, च = और, नष्टः = नष्ट हो गये. (इति = ऐसा), प्रेक्ष्य = देखकर, तत्क्षणात् = उसी समय, सकलम् = सारा, संसार-सौख्यं = संसार का सुख, असारम् = सार रहित. अवबुद्ध्य = जानकर, विरक्तः = वैराग्य सम्पन्न, (तत् = वह राज्य), विमलकीर्तये = विमलकीर्ति के लिये, दत्त्वा = देकर, अथ = उसके बाद, स्वयंप्रभन्निनेशितु' -- स्वयंवजिनेकर के, समवसारे = समवशरण में, गत्वा = जाकर, विवेकभरसंकुलां = विवेक-भेदविज्ञान से होने वाले आनन्द से भरी हुई, दीक्षां - जैनेश्वरी दीक्षा अर्थात् मुनि दशा को, समगृहीत् = ग्रहण कर लिया। श्लोकार्थ - उस नगर में विमलवाहन नामक एक राजा था। काललब्धि आ जाने से उसने आकाश में बादलों का उत्पन्न इकट्ठा होना और नष्ट होना देखकर उसी समय सारा सांसारिक सुख क्षणिक जानकर विरक्त होते हुये उस राज्य को तिनके के समान छोड़कर तथा उसे विमलकीर्ति के लिये देकर स्वयंप्रभ जिनेश्वर के समवसरण में पहुंचकर भेदविज्ञान के आनन्दरस से परिपूर्ण जिनेन्द्र दीक्षा अर्थात् मुनि पद को ग्रहण कर लिया। स्वीकृत्यैकादशाङ्गानि ततः षोडशभावना । यद्धवा तीर्थकरं गोत्रं चकार तप उत्तमम् ।।६।। अन्वयार्थ - (तत्र = उस समवसरण में, असौ = उन मुनिराज ने), एकादशाङ्गानि = ग्यारह अगों को, स्वीकृत्य = धारण कर, ततः = उसके बाद, षोडशमावनाः = सोलह भावनायें, (भावयित्वा = भा कर), तीर्थङ्करं = तीर्थङ्कर नाम कर्म, गोत्रं
SR No.090450
Book TitleSammedshikhar Mahatmya
Original Sutra AuthorDevdatt Yativar
AuthorDharmchand Shastri
PublisherBharat Varshiya Anekant Vidwat Parishad
Publication Year
Total Pages639
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Pilgrimage
File Size12 MB
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