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द्वितीया
७६ पंचान्तचत्वारिंशभिः लक्षैः = पेंतालीस लाख से. परिमिताः = पनि वा:), कानुनी ::. हे गये मुनिराज (मुक्तिपद्र गताः = मुक्ति पद को प्राप्त हुये) ततः = उससे भी पहिले, अतिप्रौढ़ा = अत्यंत प्राचीन, हि = पादपूरक अव्यय, अनन्तकाः = अनन्त, श्रीशम्भवा = आनन्द से परिपूर्ण, मुक्ताः = मुक्त जीव, तत्र = उसी सिद्धवर कूट पर, हि = ही, सिद्धाः
= सिद्ध परमात्मा, (अभूवन = हुये)। - श्लोकार्थ - उनके बाद अरब चौरासी करोड़ पेंतालीस लाख निराज तथा
उससे भी पहिले अति प्राचीन आनन्द से पूर्ण मुक्त जीव उसी
सिद्धवर कूट से सिद्ध परमात्मा बने यह जानना चाहिये । एककूटस्य ते सर्वे शक्या न गणितुं बुधैः ।।
सर्वेषां मुक्तिसिद्धानां कः कुर्याद् गणनां कविः ।।१०।। अन्वयार्थ - बुधैः = विद्वज्जनों द्वारा, एककूटस्य = एक कूट के. ते सर्वे
= वे सभी मुनिराज, गणितुं = गिनना, शक्या: = शक्य, न = नहीं, कः = कौन, कविः = कवि, सर्वेषां = सारे; मुक्तिसिद्धानां = मुक्ति पाकर सिद्ध हुये जीवों की, गणनां
= गिनती को, कुर्यात् = करे। • श्लोकार्थ - उस एक कूट के सभी मुनिराजों को गिनने के लिये विद्वज्जन
समर्थ नहीं हैं। कौन कवि सारे मुक्त हुये सिद्ध जीयों की गिनती को करे? क्या कोई कर सकता है? उत्तर है नहीं। सम्मेदाथलयात्रां यः कुर्याद् भावेन संयुतः ।
तस्य पुण्यफलं भूप! शृणु संसारदुर्लभम् ।।१।। अन्वयार्थ - यः = जो. भावेन = भाव से, संयुतः = सहित होकर,
सम्मेदाचल यात्रा = सम्मेदशिखर की तीर्थवन्दना रूपी यात्रा को. कुर्यात् = करे, तस्य == उसके, संसारदुर्लभम् = संसार में कठिनाई से प्राप्त होने वाले, पुण्यफलं = घुण्यफल को. भूप = हे राजन श्रेणिक!, (त्वं = तु). शृणु = सुनो।