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__ श्री सम्मेदशिखर माहात्म्य श्लोकार्थ - जो भी भाव से परिपूर्ण होकर सम्मेदाचल पर्वत की तीर्थवन्दना
रूपी यात्रा को करे तो उसके संसार में कठिनता से होने
योग्य पुण्य फल को हे राजन् श्रेणिक! तुम सुनो। द्वात्रिंशत्कोटिसंप्रोषधोपवासफलं विदुः । यत्फलं तत्फलं नूनं लभेत् सम्मेदयात्रिकः ।।६२।। तिर्यनारकगत्योश्च नाशो भवति निश्चितम् ।
महावीरेण कथितं प्रमाणं तच्च साधुवः ।।६३।। अन्वयार्थ - (ज्ञानिनः = ज्ञानी जन) द्वात्रिंशत्कोटिसंप्रोषधोपवासफलं =
बत्तीस करोड़ प्रोषधोपवास का फल के बराबर, यत्फलं = जो फल, विदुः = जानते हैं, तत्फलं = उस फल को. नूनं = निश्चित ही, सम्मेदयात्रिकः = सम्मेदगिरि की यात्रा करने वाला, लभेत् = पाये, (सम्मेदयात्रिकस्य = सम्मेदशिखर की यात्रा करने वाले के), तिर्यनारकगत्योः = तिर्यञ्च और नरक गति का, निश्चितम् = निश्चित, नाशः = नाश, भवति = होता है, इति - इस प्रकार. महावीरेण = भगवान महावीर द्वारा, कथितं = कहा गया, (यत् = जो), प्रमाणं = प्रमाण, (अस्ति = है). तत् = वह, वः = तुम सभी के लिये, साधु =
सही, स्यात् = हो। श्लोकार्थ - ज्ञानीजन बत्तीस करोड़ सच्चे प्रोषघोपवास का जो फल
जानते हैं वह फल सम्मेदशिखर की यात्रा करने वाला यात्री प्राप्त करे। उसके नरकगति और तिर्यञ्चगति का नाश होता है इस प्रकार भगवान महावीर द्वारा कथित जो प्रमाण है
वह तुम सभी के लिये सही हो ऐसी कवि की कामना है। ईदृक् श्रीजिनराजधर्मकथनं नानाभमध्वंसनम् । श्रीसम्मेदगिरिप्रमाणफलं श्रीवर्धमानेरितम् ।। लोहाचार्ययरेण भूय उदितं श्रुत्याखिलाः सज्जनाः । सम्मेदं प्रति यान्तु भावसहिताः सर्वार्थसिद्धिप्रदम् ।।६४।।