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द्वितीया
सह = एक हजार मुनियों के साथ, प्रतिमायोगम् - प्रतिमायोग में, आस्थितः :- स्थित हो गये, तथा च = और, तत्र = उस सम्मेदशिखर पर्वत पर, सिद्धयरे = सिद्धवर नामक, कूटे = कूट पर, असौ = उन, मोहारिविजयी :- मोह रूपी शत्रु को जीतने वाले, ध्यानाग्निदाधकर्मा = च्यानरूपी अग्मि में कर्मों को दग्ध करने वाले, अजितः = तीर्थङ्कर अजितनाथ ने,
मुक्तिम् = मुक्ति को, अवाप = प्राप्त कर लिया। श्लोकार्थ - समवसरण को प्राप्त कर प्रभु ने समोशरण में गणधरादि सभी
जीवों को आल्हादित करके बत्तीस हजार वर्षों से समनुकूल क्षेत्रों में विहार करते हुये और सज्जनों को धर्म का अनुकूल उपदेश करते हुये सम्मेदशिखर को प्राप्त किया। वहाँ एक मास तक रहते हुये उन भगवान् ने दिव्यध्वनि को रोककर चैत्रमास की शुक्ल पक्ष की पंचमी को एक हजार मुगियों के साथ प्रतिमायोग धारण कर लिया और उसी पर्वत अर्थात् सम्मेदशिखर पर सिद्धवर नामक कूट पर उन मोह रूपी शत्रु के विजेता, ध्यागरूपी अग्नि में कर्मों को जलाने वाले उन
अजितनाथ तीर्थङ्कर ने मुक्ति प्राप्त की। इति श्रुत्वा मुनेर्वाक्यं प्रसन्नवदनाम्बुजः ।
शुभे मुहूर्ते संकल्प्य यात्रायै सम्मुखोऽभवत् । १७६ ।। अन्वयार्थ - इति = इस प्रकार. मुनेः = मुनि के. वाक्यं = वाक्य को. श्रुत्वा
= सुनकर, प्रसन्नवदनाम्बुज: प्रसन्न = मुख कमल वाला, (सगरः = सगर चक्रवर्ती), यात्रायै= यात्रा के लिये, संकल्प्य = संकल्प करके, शुभे= शुभ, मुहूर्ते = मुहूर्त में, (सिद्धक्षेत्रस्य
= सिद्धक्षेत्र के), सम्मुखः = सामने, अभवत् = हो गया। श्लोकार्थ - इस प्रकार मुनिराज के वचनों से अजितनाथ के चरित्र को
सुनकर अति प्रसन्नता के कारण कमल के समान खिले मुख वाले सगर चक्रवर्ती ने सिद्धक्षेत्र की वन्दना के लिये संकल्प करके सिद्धक्षेत्र को अपने सम्मुख कर लिया अर्थात् वह यात्रा करके सिद्धक्षेत्र के सम्मुख हो गया।