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श्री सम्मेदशिखर माहात्म्य अन्वयार्थ - तत्र - उस वन में, अयं = यह, मुनीश्वरः = मुनिवर्य, षोडश
- सोलह, भावनाः = भावनायें, सम्भाव्य = अच्छी तरह से भाकर. तीर्थकृद्गोत्रसम्पन्नः = तीर्थङ्कर प्रकृति को बांधकर उससे सहित, अक्रसमप्रभः = सूर्य समान प्रखर तेज वाले,
बभूव - हो गये थे। श्लोकार्थ - उस वन में यह मुनिराज सोलहकारण भावना भाकर तीर्थकर
प्रकृति को बांधने वाले सूर्य के समान तेज से संयुक्त हो गये। आयुरन्ते स सन्यासविधिना त्यक्तदेहकः ।
अहमिन्द्रत्वमगमत् विमाने विजयामिधे ।।७।। अन्वयार्थ - आयुरन्ते = आयु पूर्ण होने के अन्तिम समय में, सः = वह
मुनिराज, सन्यासविधिना = सन्यासमरण पूर्वक, त्यक्तदेहक: = देह को छोड़ने वाले होकर, विजयाभिधे = विजय नामक, विमाने = अनुत्तर विमान में, अहमिन्द्रत्वम् = अहमिन्द्र पद
को, अगमत् = प्राप्त हुआ। श्लोकार्थ - उन मुनिराज ने आयु बीतने पर अन्तिम समय में सन्यासमरण
पूर्वक देह छोड़ दी और विजय नामक अनुत्तर विमान में अहमिन्द्र पद प्राप्त कर लिया । त्रायस्त्रिंशत्सागरायुस्तस्य तत्र बभूव सः । तत्प्रमाणसहसेषु गतेष्वेषु मानसम् ।।५८।। आहारमेव जग्राह देवः परमधार्मिकः ।
त्रित्रिंशत्पक्षगमने श्वासोच्छ्वासधरस्तथा ।।५६।। अन्वयार्थ · तत्र = उस विजय नामक अनुत्तर विमान में, तस्य = उस
देव की, त्रयस्त्रिंशत् = तेतीस, सागरायुः = सागर आयु, बमूव = थी, सः = वह, परमधार्मिकः = परम धर्मात्मा, देवः = देव, एतेषु = इन, तत्प्रमाणसहस्रेषु = तेतीस हजार, (वर्षेषु = वर्ष). गतेषु = बीत जाने पर, मानसं = मानस मात्र, आहारम् = अमृत आहार को, जग्राह - ग्रहण करता था, तथा = और,