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द्वितीया
त्रित्रिंशत्पक्षगमने :- तेतीस पक्ष बीतने पर, श्वासोच्छवासधरः
= श्वासोच्छ्वास लेने वाला, (बभूव = होता था)। श्लोकार्थ - उस विजय नामक अनुत्तर विमान में उस देव की आयु तेतीस
सागर थी। वह रमिक देवता तेतीस हजार वर्ष बीत जाने पर मानसिक आहार अर्थात् आहार की इच्छा होने पर कंठ से निसृत अमृत रस का आहार ग्रहण करता था तथा तेतीस पक्ष बीतने पर श्वासोच्छवास लेता था। एवं विजयको देवः सर्वकल्मषवर्जितः ।
अन्यभूत्परमं मोदं देवमानवदुर्लभम् ।।६।। अन्वयार्थ · एवं = इस प्रकार, (सः = उस), सर्वकल्मषवर्जितः =
सर्वविधपाप रहित, विजयकः = विजय विमान में उत्पन्न, देवः = देव ने, देवमानवदुर्लभम् = देव और मानवों को दुर्लभ.
परमं = परम, मोदं = हर्ष को, अन्वभूत् = अनुभूत किया। श्लोकार्थ - इस प्रकार सर्वविध पापों से रहित हुये विजय नामक अनुत्तर
वाले उस देव ने देव और मानवों को दुर्लभ परम आनन्द का
अनुभव किया। जम्बूद्वीपेऽन्थ भरतक्षेत्रगः कौसलाभिधः ।
देशस्तत्र पुरी रम्या अयोध्या नाम विश्रुता ।।६१।। अन्वयार्थ - अथ = अनन्तर, भरतक्षेत्रगः = भरतक्षेत्रगत, कौसलाभिधः =
कौसल नामक. देशः = देश. (आसीत् = था), तत्र = वहाँ अयोध्या, नाम = अयोध्या नामक, रम्या = रमणीय. पुरी =
नगरी, विश्रुता = विश्रुत अर्थात् प्रसिद्ध थी। श्लोकार्थ - जम्बूद्वीप के भरतक्षेत्र में कौसल देश था जहाँ अयोध्या नामक
एक रमणीय नगरी प्रसिद्ध थी। राजा दृढ़रथाख्योऽभूत्तत्र धर्माधिचन्द्रमाः । राज्ञी विजयसेनास्य स्वप्नान्षोडश वीक्ष्य च ।।२।। अहमिन्द्रं स्वगर्भ सा दधार सुतमुत्तमम् । षण्मासं रत्नवृष्टेश्च सौख्यं सम्प्राप्य पूर्वतः ।।६३11