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________________ द्वितीया = उसकी यात्रा विधि को, (च = और). उत्तम = श्रेष्ठ, फलं = फल को, इह = यहाँ, शृणु = सुनो। श्लोकार्थ - इस प्रकार राजा के वचन सुनकर चारणऋद्धिधारी मुनिराज बोले - हे गंभीर भाग्य वाले! तुम्हारे समान इस पृथ्वीमंडल पर कौन होगा सचमुच तुम धन्यभाग्य हो क्योंकि तुम सम्मेदशिखर गिरिराजा की यात्रा के लिये अत्यधिक उत्सुक हो। हे राजेन्द्र! अब यहाँ तुम उसकी यात्रा विधि को और यात्रा से प्राप्त उत्तम फल को सुनो । यात्रोन्मुखो भव्यजीवः प्रथमं सिद्धवन्दनाम् । विधाय विधिवद् भूप चतुःसंमान् प्राय च !!!३!! सत्कारैः सार्धगान् कृत्वा कुर्याधात्रां च शैखरीम् । यतयश्चार्यिकास्तद्वच्छ्रावकाः श्राविकास्तथा ।।४४।। चतुः संघाः समाख्याता: सानियोगाः शुचिव्रताः। यस्तु मोक्षफलाकाङ्क्षी तितीर्षु मोहसागरम् ।।४।। अन्वयार्थ · भूप! = हे राजन, यात्रोन्मुखः = यात्रा करने के लिये तैयार और उत्सुक, भव्यजीवः = भव्यजीव, प्रथम = सबसे पहिले, सिद्धवन्दना = सिद्धभगवन्तों की वन्दना, विधाय = करके, च = और, विधिवत् = विधिपूर्वक. चतुःसंघान् = चारों संघों को, प्रपूज्य = पूजकर, सत्कारैः च = और सत्कारों से, (तान = उनको), सार्धगान् = साथ चलने वाला, कृत्वा = करके. शैखरी = सम्मेदशिखर सम्बन्धी, यात्रा = तीर्थवन्दना रूप यात्रा को, कुर्यात् = करे। यतयः = मुनिजन, आर्यिका: = आर्यिकायें, तथा च = और, तंद्वत् = उसके समान, श्रावकाः - श्रावक, श्राविकाः = श्राविकायें. (इति = इस प्रकार), चतुःसङ्घाः = चारों सङ्घ, सानियोगाः = नियोग अर्थात् नियमपालन की वृत्ति सहित. शुचिव्रताः = निर्मलव्रत धारण करने रूप, समाख्याताः = कहे गये हैं. यः = जो, मोहसागरं = मोह रूपी समुद्र को, तितीर्घः
SR No.090450
Book TitleSammedshikhar Mahatmya
Original Sutra AuthorDevdatt Yativar
AuthorDharmchand Shastri
PublisherBharat Varshiya Anekant Vidwat Parishad
Publication Year
Total Pages639
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Pilgrimage
File Size12 MB
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