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श्री सम्मेदशिखर माहात्म्य
श्लोकार्थ हे मुनिराज ! जिस दिन से सम्मेदाचल पर्वत पर तीर्थङ्कर अजितनाथ का मोक्ष मैंने सुना है, उसी दिन से मेरा मन सम्मेदाचल की यात्रा के लिये अत्यधिक उत्सुक हो रहा है। यात्राविधिरिहोच्यताम् ।
सम्मेदलयात्रायै
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क्रियते केन विधिना कथं किं फलमाप्यते ||४०|| अन्वयार्थ - इह = यहाँ, मुनिराज ! हे मुनिराज ! सम्मेदशैलयात्रायै = सम्मेदशिखर पर्वत की यात्रा के लिये, यात्राविधिः तीर्थवन्दना का तरीका, उच्यताम् = कहें, केनविधिना = किस रीति से, (सा = वह यात्रा), क्रियते की जाती है, कथं = कैसे, किं = क्या, फलं = फल, आप्यते = प्राप्त किया जाता
है ।
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श्लोकार्थ हे मुनिराज ! अब आप यहाँ सम्मेदशिखर यात्रा के लिये तीर्थवन्दना की विधि बतायें। सम्मेदशिखर तीर्थ की वन्दना किस रीति से की जाती है तथा कैसे और क्या फल तीर्थयात्रियों द्वारा पाया जाता है।
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नृपवाक्यमिति श्रुत्वा चारणो मुनिरब्रवीत् । धन्योसि भाग्यजलधे त्वत्समः को महीतले ।।४१।। यतः सम्मेदशैलेन्द्रयात्रायै त्वं महोत्सुकः । तद्यात्राविधिं फलमिहोत्तमम् ||४२ || शृणु राजेन्द्र ! अन्वयार्थ इति = इस प्रकार, गृपवाक्यम् - राजा के वचन को, श्रुत्वा = सुनकर, चारणो मुनिः = चारण ऋद्धिधारी मुनिराज, हे भाग्यशाली !, महीतले अब्रवीत् = बोले, भाग्यजलधे ! कौन, (स्यात् पृथ्वी पर, त्वत्समः = तुम्हारे समान, कः = होगा ). धन्यः = धन्यभाग, असि = हो. (त्यम् = तुम्), यतः क्योंकि, सम्मेदशैलेन्द्रयात्रायै = सम्मेदशिखर रूपी गिरिराज की यात्रा के लिये, त्वं = तुम, महोत्सुकः - अत्यधिक उत्कंठित, (असि = हो), राजेन्द्र ! = हे राजन तद्यात्राविधिं
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