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________________ (१०) जैन तीर्थकरों ने सर्वप्रथम मनुष्य को मनुष्य बनाने का प्रयास किया। इतना ही नहीं, किसी ईश्वरीय सत्ता में भगवत्ता को निहारने की बजाय मनुष्य में छिपी भगवत्ता को प्रगट करने की कोशिश की । जैनधर्मानुयायी सदैव तोर्थ निर्माण एवं संरक्षण के प्रति सजग रहे। उन्होंने समयसमय पर तीर्थ रक्षा के लिए सर्वस्व निछावर किया। तीर्थ स्थान को पवित्र बनाने में तीर्थकरों एवं मुनियों की साधना, तप, त्याग एवं निर्वाण से तीर्थों की रचना हुई । युग था जब आत्म साधक महापुरुषों ने उच्च पर्वतमालाओं में मनोरम नदी तट गम्भीर गुफाओं में एकान्त स्थान पर ध्यान एवं साधना के बल से आत्मा को खोजा / जाना तथा कर्मों को नाश कर परम पद में स्थित हो गये । वही स्थल हमारे लिए पूजनीय आराधनीय बन गये तीर्थभूमियाँ हमारे लिए सिर्फ पर्यटक स्थल तक ही सीमित नहीं हैं। यहाँ वहसब कुछ है जिसे पाकर मनुष्य कोलाहलभरी विषैली जिन्दगी में शान्ति की कुछ अमृत बूँदें प्राप्त करता है । प्रश्न स्वाभाविक हैं कि बीस तीर्थकर तथा अनन्तानंत मुनियों ने अन्तिम साधना के लिए सम्मेदशिखर को ही क्यों चुना? इसके पीछे एक मनोवैज्ञानिक तथ्य है। हर तीर्थंकर ने अपनी चैतन्य - विद्युत् धारा से उस शिखर को चार्ज किया है। एक तीर्थकर ने वहाँ अपनी समाधि लगायो । उनके हजारों वर्षो बाद दूसरे तीर्थंकर या मुनि ने कर्मनाश कर वहाँ निर्वाण प्राप्त किया। इस प्रकार हर तीर्थंकर ने उस धनत्व शक्ति को सचेतन करने का प्रयास किया। एक तीर्थकर ने उसे पुनः अभिसिंचित कर दिया । अरबों खरबों मुनियों के द्वारा लाखों वर्षों से वह स्थान स्पदिन्त जागृत और अभिसिंचित होता रहा। चेतना की ज्योति वहाँ सदा अखण्ड बनी रही । निसर्गत: यह कल्पना की जा सकती हैं कि सम्मेदशिखर कितना अद्भुत, अनूठा जामत् पुण्य क्षेत्र है । · निश्चित रूप से सम्मेदशिखर वह गौरवमय भूमि है। इस भूमि की विशेषता है, व्यक्ति जैसे ही शिखर का प्रथम सीढ़ी पर एक कदम रखता है, आगे ही बढ़ता चला जाता हैं। हृदय आनन्द से इस तरह सराबोर हो जाता है कि आगे आने वाली थकावट उसे थकावट नहीं लगती । आठ वर्ष का बच्चा है या अस्सी साल का वृद्ध, दोनों समान हैं। वैसे भी निर्वाण की ज्योतियाँ कभी तलहटी में नहीं जला करती इसे जलाने के लिए शिखर तक पहुँचना पड़ेगा | हमारा हृदय तब कितना प्रसन्न होता है जब हम इन पावन शिखरों पर पहुँचते हैं। आँधी-तूफान झंझावात, वर्षा तेज हवायें सबकुछ चलती हैं, कभी "
SR No.090450
Book TitleSammedshikhar Mahatmya
Original Sutra AuthorDevdatt Yativar
AuthorDharmchand Shastri
PublisherBharat Varshiya Anekant Vidwat Parishad
Publication Year
Total Pages639
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Pilgrimage
File Size12 MB
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