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एकविंशतिः
यात्रां यस्मिन्दिने कुर्यात्तद्दिने भक्तिभावतः । पञ्चकल्याणपूजां वै विदध्यादीशितुर्बुधः । ७८ ।।
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अन्वयार्थ बुधः = चतुर या विद्वान् व्यक्ति, यस्मिन् = जिस दिने = तीर्थवन्दना को कुर्यात् = करे, तद्दिने उस
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दिन, यात्रां दिन, भक्तिभावतः भक्तिभाव से, ईशितुः = तीर्थङ्कर की, पंचकल्याणपूजां पंचकल्याणकों के गुणानुवाद स्वरूप पूजा को, वै यथार्थ में कुर्यात् = करें।
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अन्वयार्थ
श्लोकार्थ - चतुर या विद्वान व्यक्ति जिस दिन पर्वतराज की तीर्थवन्दना करें उस दिन वह तीर्थकरों की पंचकल्याणकों के गुणानुवाद स्वरूप पूजा को भक्तिभाव से अवश्य करे । मार्गे दीनजनान् वृद्धान् चतुरांश्च तथैव सः । संरक्षेत्सर्वभावेन करुणार्दकृताशयः । १७६ ।।
सः
वह तीर्थयात्री, सर्वभावेन =
सभी भावों सो, करुणार्द कृताशय: = करूणा से भीगे आशय वाला हुआ, मार्गे = मार्ग में, दीनजनान् = दीन लोगों को वृद्धान् = वृद्धों को. च = और, चतुरान = चतुरों को तथैव = वैसे ही संरक्षेत् = रक्षित करे ।
"
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अन्वयाथ
श्लोकार्थ वह तीर्थयात्री सर्वभावों से करुणार्द्र चित्त वाला होकर मार्ग में दीन लोगों की चतुरों की और वृद्धों को वैसे ही रक्षा करे जैसे अपनी करता है ।
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५६७
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कौन,
एवं सम्मेदयात्रायां कृतायां को महीतले । पदार्थोऽयं न यात्राकृत् प्राप्नुयात् मनसार्धितम् । ८० ।। एवं = इस प्रकार, सम्मेदयात्रायां = सम्मेदशिखर की यात्रा, कृतायां कर लेने पर, महीतले = पृथ्वी पर कः = पदार्थ = पदार्थ, (अस्ति = है), (यत् = जो ) मनसार्धितं = मन से चाहा गया हो, (तत् = उसे) यात्राकृत् वाला, न = नहीं, प्राप्नुयात् = प्राप्त करे ।
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यात्रा करने
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श्लोकार्थ इस प्रकार से सम्मेदशिखर की यात्रा कर लेने पर पृथ्वी पर कौन सा पदार्थ है जो मन से चाहा गया है और वह तीर्थयात्री प्राप्त न करे अर्थात् प्राप्त करे ही ।