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श्री सम्मेदशिखर माहात्म्य जानकर, हि = ही, सः = उस. भूपालः = राजा ने. अनुत्तमम = उत्तम, लगने वाले, राज्यं = राज्यसम्पदा को, (तस्मै = उसके लिये), ददौ = दे दिया। तस्मिन्नेव = उस ही. बने = वन में, राजा = राजा ने, स्वयं = स्वयं, दीक्षां = मुनिदीक्षा
को, गृहीतवान - ग्रहण कर लिया। श्लोकार्थ - हे राजन! तुम यहाँ ही स्वर्णभद्र कूट की प्रतिष्ठा करके, उस
पर सुन्दर जिनमंदिर बनवाकर उसमें परम भक्तिभाव से पार्श्वनाथ प्रशु की प्रतिमा स्थापित करके सिद्धचक्र के व्रत का पालन करो, तुम अवश्य ही पुत्र को प्राप्त करोगे। मुनिराज के ऐसे वचन सुनकर उस राजा ने तभी ही उसी वन में प्रसन्नभाव से स्वर्णचैत्यालय बनवाकर उसमें नीलरत्नमय अति सुन्दर पार्श्वनाथ की प्रतिमा को स्थापित करके वहाँ सम्मेदाचल की स्वर्णभद्र कट को प्रतिष्ठापित कर दिया और इसके बाद उसने चतुर्विध संघ को चारों प्रकार का दान देकर वहाँ आये सभी याचकों को अयाचक बना दिया तथा सिद्धचक्र व्रत का अच्छी तरह से पालन करते हुये काललब्धि का योग हो जाने से उस राजा ने कुल के लिये आश्चर्यकारी भावसेन नामक पुत्र को प्राप्त कर लिया। कालक्रम से युवावस्था को प्राप्त करने पर राजा ने उस पुत्र को राजचिन्हों से लक्षित समझकर अनुत्तम या उत्तम लगने वाले राज्य को उसे दे दिया तथा उस ही वन में राजा ने खुद मुनिदीक्षा को ग्रहण कर
लिया। तपसा दग्धकर्मासौ केवलज्ञानमाप्तवान् । शुक्लध्यानात् मनः सिद्धपदे संयोज्य निश्चलम् ।।५८। जीर्णसृजमिव तनुं त्यक्त्वा सिद्धत्वं खलु सङ्गतः । तनश्च सो भावसेनाख्यो नृपः परमं धर्मभृत् ।।६।। संघं प्रपूज्य सद्भक्त्या चैककोटिप्रमाणितान् । चतुर्पोक्ताऽशीतिलक्षसम्मितान् भव्यजीवकान् ।।६०।। विधाय सार्धगान् यात्रां चक्रे सम्मेदभूभृतः । सुवर्णभद्रकूटं तं तत्र गत्वा प्रपूज्य स ||६१।। ववन्दे भक्तिभावेन तैरूक्तैस्साधुसत्तमैः । साध दिगम्बरो भूत्वा तपः कृत्या च भावतः ।।२।।