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________________ एकविंशतिः - মুपूে = को, वीक्ष्य = देखकर, महीपतिः = राजा, विरक्तः = विरक्त, अभूत् = हो गया । सः उस पुण्यात्मा = पवित्र आत्मा वाले पुण्यशाली राजा ने समुद्रदत्ताख्यं = समुद्रदत्त नामक मुनिराज को, अभिवन्द्य प्रणाम करके, परमार्थप्रसिद्धये = परम अर्थ मोक्ष की प्रसिद्धि के लिये, तस्य = उनके. एवं ही सकाशात् = पास से, बहुभिः = अनेक, भूमिपालैः राजाओं के समं = साथ, मुदा = प्रसन्नता से, दीक्षां = मुनिदीक्षा को, जग्राह ग्रहण कर लिया। = 4 श्लोकार्थ एक समय राज्य के मोगोपभोगसुखों का उद्गम होने के कारण प्रसन्नता से कमल सदृश खिले नेत्रों वाले उस राजा ने दर्पण में अपना मुख देखा तथा मुख पर सफेद बालों को देखकर वह विरक्त हो गया तथा उस पुण्यात्मा राजा ने समुद्रतारक सुनिन को प्रम करके परम अर्थ मोक्ष को पाने के लिये उनके ही पास से अनेक राजाओं के साथ हर्षपूर्वक मुनिदीक्षा ग्रहण कर ली । एकादशाङ्गधारी वै कारणानि च षोडश । भावयित्वा बबन्धासौ गोत्रं तीर्थकृतं सताम् ।।६।। J अन्वयार्थ - च = और. एकादशाङ्गधारी = ग्यारह अगों के धारी, असौ = उन मुनिराज ने षोडश = सोलह कारणानि = कारण भावनायें, भावयित्त्वा = भाकर, सतां - सज्जनों भव्यों के लिये, तीर्थकृत = तीर्थङ्कर, गोत्रं = महापुण्य को बबन्ध बाँध लिया । - = श्लोकार्थ तथा ग्यारह अङ्गों के धारी उन मुनिराज ने सोलहकारण भावनाओं को भाकर सज्जनों के कल्याणार्थ तीर्थङ्कर नामक महापुण्य बाँध लिया । = = आयुषोन्ते च सन्यासात् प्राणत्यागं विधाय वै । प्राप्य हि प्राणताख्यंस्वर्ग चेन्द्रत्वं स समाप्नोत् ||१०|| अन्वयार्थ - च तथा सः = उन मुनिराज ने आयुषः आयु के, अन्ते = अन्त में, संन्यासात् = संन्यास मरण से, प्राणत्यागं का त्याग, विधाय = करके, च = और, वै = = प्राणों — : ही प्राणताख्यं प्राणत नामक, स्वर्गं C निश्चित, हि स्वर्ग को, प्राप्य
SR No.090450
Book TitleSammedshikhar Mahatmya
Original Sutra AuthorDevdatt Yativar
AuthorDharmchand Shastri
PublisherBharat Varshiya Anekant Vidwat Parishad
Publication Year
Total Pages639
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Pilgrimage
File Size12 MB
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