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श्री सम्मेदशिखर माहात्म्य = प्राप्त करके, इन्द्रत्वं = इन्द्र पद को समाप्नोत् = प्राप्त
किया। श्लोकार्थ - तथा उन मुनिराज ने आयु के अन्त में संन्यासमरण से प्राणों
का त्याग करके और प्राणत स्वर्ग को पाकर इन्द्र पद प्राप्त कर लिया। तत्र प्रोक्तायुराहारश्वाससामर्थ्ययान् प्रभुः ।
तथैवेन्द्रसुखं भुञ्जन् सिद्धस्मरणकृद् बभौ ।।११।। अन्ययार्थ · तथा = तथा, तत्र = वहाँ अर्थात् प्राणत स्वर्ग में,
प्रोक्तायुराहारश्वाससामर्थ्यवान् = शास्त्रोक्त आयु, आहार और श्वासोच्छ्वास की सामर्थ्य वाला. प्रभुः = वह इन्द्र, इन्द्रसुखं : इन्द्र के सुख को. भुजन् = भोगता हुआ, सिद्धस्मरणकृद् = सिद्ध भगवन्तों का स्मरण करने वाला,
(भूत्वा = होकर), बभौ = सुशोभित हुआ। श्लोकार्थ - तथा प्राणत स्वर्ग में, निर्दिष्ट आयु, आहार और श्वासोच्छ्वास
आदि की सामर्थ्यवाला वह इन्द्र इन्द्रोचित सुखों का मोग करते हुये लथा सिद्ध भगवन्तों का ध्यान करने वाला होकर
सुशोभित हुआ। अथ तस्यावतारस्य कथां कल्याणप्रदां सताम् ।
श्रोतव्या पठितव्या च यक्ष्येहं सादरं बुधैः ।।१२।। अन्वयार्थ - अथ = अब, सतां = सज्जनों-भव्यों के लिये, कल्याणप्रदा
= कल्याणप्रद, तस्य = उस इन्द्र की. अवतारकथां = अवतरण कथा को, अहं = मैं, वक्ष्ये = कहता हूं, बुधैः = विद्वानों द्वारा, (सा - वह), सादरं = आदर सहित, श्रोतव्या = सुनी जानी चाहिये, च = और, पठितव्या = पढ़ी जानी
चाहिये। श्लोकार्थ - अब मैं सज्जनों के लिये कल्याणप्रद उस इन्द्र की अवतरण
कथा को कहता हूं। वह कथा विद्वानों द्वारा सुनी एवं पढ़ी
जाना चाहिये। पूर्वोक्तकाशीविषये वाराणस्यामभून्नृपः । विश्वसेनाभिधस्तस्य वामाख्या महिषी वरा ||१३||