________________
५१२
श्री सम्मेदशिखर महात्म्य = मोक्ष को, गतः = गये. (अहं = मैं), तं = उस. श्रेयोभिशब्दान्वितं = श्रेयशब्दों को गुंजाने वाली, मित्रधरं = मित्रधर, कूटं = कूट को, सदा = हमेशा, नमामि = प्रणाम
करता है। श्लोकार्थ - तपश्चरण से उत्पन्न अग्नि में प्रकट होने वाली अनुपम
ज्वालाओं से मोह रूप महापटलों को जला देने से जिन्होंने केवलज्ञान प्राप्त किया है ऐसे भगवान नमिनाथ जिस कूट से मोक्ष गये मैं श्रेयपाल्दों को गुंजायमा कालो नाली एस मित्रधर कूट को सदैव प्रणाम करता हूं। {इति दीक्षितब्रह्मनेमिदत्तविरचिते सम्मेदगिरिमहात्म्ये तीर्थकृन्नमिनाथवृतान्तपुरस्सरं मित्रधरकूटवर्णनं
नाम विंशतिमोऽध्यायः समाप्तः ।) इस प्रकार दीक्षित ब्रह्मनेमिदत्त द्वारा रचित सम्मेदगिरि माहात्म्य नामक काव्य में तीर्थङ्कर नमिनाथ के वृत्तान्त को सामने करते हुये मित्रधर कूट के वर्णन वाला बीसवां अध्याय समाप्त हुआ।}