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विशतिः
= प्राप्त किया। श्लोकार्थ - भव्य जीवों के समूह से घिरे उस पवित्र आत्मा स्वरूप मेघदत्त
राजा ने अनेक प्रकार से उस कूट की स्तुति करके वहीं पर ही मुनिदीक्षा को अङ्गीकार कर लिया तथा उत्तम तपश्चरण तप करके शुक्लध्यान में तल्लीन, मोह शत्रु पर विजय पाने वाले प्रसन्नचित्त मुन्निमाज ने पैंतालीस नारा अरय एल्यों के साथ केवलज्ञान के चमत्कार से पूर्ण एवं अनन्तसुख को देने
वाली मोक्षसिद्धि को पा लिया। वन्दनादेककूटस्य सिद्धिरेवं प्रकीर्तिता।
तस्मात्प्रवन्दन्तां भव्यः सर्वकूटान् प्रयत्नतः ।।६८।। अन्वयार्थ - एककूटस्य = एक कूट की. वन्दनात् = वन्दना करने से,
एवं = इस प्रकार, सिद्धिः = सिद्धि-उपलब्धि, प्रकीर्तिता = कही गयी, (अस्ति = है); तस्मात् = इसलिये, भव्याः = भव्य जीव. प्रयत्नतः = प्रयत्न से, सर्वकूटान् = सारी कूटों की,
प्रवन्दन्ताम् = वन्दना करें। श्लोकार्थ - एक कूट की वन्दना करने से इस प्रकार की सिद्धि कही गयी
है इसलिये ही भव्य जीव प्रयत्न पूर्वक सारी कूटों की वन्दना
करें। तपःप्रभवपावकप्रकटितातुलज्वालिका. प्रदाहितमहातमः पटललब्धसत्केवलः ।।६६।। नमिः स भगवान्गतः शिवपदं यतस्तं सदा ।
नमामि मित्रधरं कूटं श्रेयोऽभिशब्दान्वितम् । १७०।। अन्वयार्थ - यतः = जिस कूट से, तपःप्रभवपावकप्रकटितातुलज्वालिका
प्रदाहितमहातमः पटललब्धसत्केवलः - तपश्चरण से उत्पन्न अग्नि में प्रकट हुयीं अतुलनीय ज्वालाओं से दग्ध महामोह रूपी अंधकार पटल के कारण पाया है केवलज्ञान जिन्होंने ऐसे, सः = वह, नमिः = नमिनाथ, भगवान् = भगवान् शिवं