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श्री सम्मेदशिखर माहास्य दिव्यध्वनि को, समुत्सार्य = खिराकर, तत्त्वादिवर्णनम् =
तत्त्वादि का वर्णन. चक्रे = किया। श्लोकार्थ - केवलज्ञान होने के बाद उन प्रभु ने कुबेर धनद आदि द्वारा
रचित समवसरण में बारह कोठों में स्थित सुप्रभ आदि गणधरों और अन्य भव्यों द्वारा स्तुत एवं पूजित होते हुये तथा भव्य जनों द्वारा पूछे जाने पर दिव्यध्वनि खिराकर ताव आदि का वर्णन किया। धर्मक्षेत्रेषु सर्वेषु विहरन् स्वेच्छया प्रभुः ।
मासमात्रायुरगमत् सम्मेदाख्यं नगेश्वरम् ||५१।। अन्वयार्थ · सर्वेषु = सभी, धर्मक्षेत्रेषु = धर्मक्षेत्रों में, विहरन् = विहार करते
हये, मासमात्रायः = एक मास आय वाले प्रः = भगवान, स्वेच्छया = स्वाधीन इच्छा से, सर्मदाख्यं -- सम्मेद नामक,
नगेश्वरं = पर्वत पर, अगमत् = गये। श्लोकार्थ . सभी धर्म क्षेत्रों में विहार करते हुये जब एक माह आयु शेष
रही तो प्रभु अपनी स्वाधीन इच्छा से सम्मेदशिखर नामक पर्वत
पर चले गये। तत्र मित्रधराख्यं सत्कूटं सम्प्राप्य संस्थितः | समारूत्य वरं योगं प्रभुः सद्ध्यानलीनभृत् ।।५२।। निष्कर्मसिद्धिं सम्प्राप्य मुनिभिः सह दीक्षितै ।
केवलज्ञानतो मुक्तिमदाप भुवि सः दुर्लभाम् ।।५३ ।। अन्यया . तत्र = उस सम्मेदशिखर पर्वत पर, मित्रधराख्यं = मित्रधर
नामक, सत्तूट = सुन्दर कूट को, सम्प्राप्य = प्राप्त करके, वरं = शुभ, योगं = योग में, समारूत्य = लगकर, संस्थितः = स्थित हुये, सद्ध्यानलीनभृत् = शुभ-शुक्लध्यान में लीन, सः = उन. प्रभुः = मगवान ने, दीक्षितैः = दीक्षित, मुनिभिः = मुनियों के, सह - साथ, केवलज्ञानतः = केवलज्ञान से, निष्कर्मसिद्धिं = निष्कर्म सिद्धि को, संप्राप्य = प्राप्त करके, भुवि = पृथ्वी पर, दुर्लभाम् = दुर्लभ, मुक्तिं = मुक्ति को, अवाप = प्राप्त कर लिया।