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एको विशतिः
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आकर जगत्पति तीर्थङ्कर को राजा के आँगन में आरोपित करके और भक्ति से उनकी पूजा करके उनके सामने उसने ताण्डव नृत्य किया फिर उस इन्द्र ने उनका नाम मुनियों के सम्यक् व्रतत्व के कारण होने से मुनिसुव्रत रख दिया । इस प्रकार प्रभु के जन्म का उत्सव करके सौधर्म इन्द्र के चले जाने पर राजा रानी दम्पति ने उन प्रभु को देखकर वहीं उस उत्तम सुख को प्राप्त किया।
तीर्थड़कर मल्लिनाथ से चौवन लाख वर्ष बीत जाने पर उसी काल में अन्तर्भूत है जीवन जिनका ऐसे जगत्प्रभु तीर्थङ्कर मुनिसुव्रत नाथ हुये थे |
तीस हजार वर्ष आयु वाले और बीस धनुष प्रमाण शरीर वाले, हरे वर्ण वाले सुन्दरता के सागर महान् पुण्यशाली तथा बाल्यावस्था में देवकुमारों द्वारा स्तुत व बाल क्रीडाओं में रत उन प्रभु ने बाल क्रीड़ाओं को करके अपनी आयु के साढ़े सात हजार वर्षो को बिताकर अर्थात् बाल्यावस्था चली जाने पर व तरुण होने पर पैतृक राजा के पद को प्राप्त करके प्रजाजनों के लिये सुखी किया।
नित्यं धर्मकथाभिश्च नीतिभिश्च विराजितः । अनेकराजपुत्रैः स नीतो कालकलां मुदा । १४७ ।। अन्वयार्थ नित्यं = सदैव, धर्मकथाभिः := धर्मकथाओं से, च = और,
नीतिभिः = नीतियों से विराजितः = सुशोभित, च = और, अनेकराजपुत्रैः = अनेक राजपुत्रों के साथ, सः वह प्रभु, मुदा - प्रसन्नता से, कालकलां - समय के क्षणों को, नीतः - लाये गये।
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श्लोकार्थ सदैव धर्मकथाओं और नीतियों से सुशोभित हुये अनेक राजपुत्रों के साथ वह प्रभु प्रसन्नता से काल के विशेष क्षणों तक लाये गये अर्थात् पहुंचे।
मग्नं तटाके वृषभमसौ दृष्ट्वा विरक्तधीः ।
राज्यं समर्प्य पुत्राय तपसे कृत निश्चयः । ॥ ४८ ॥