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श्री सम्मेदशिखर माहात्म्य ततः सौधगता देवी सुप्ता रत्नविनिर्मिते । पल्यड्के यामिनीतुर्ययामार्धेऽद्भुतभाग्यतः ।।२६।। अपश्यत्षोडशान्स्वप्नान् श्रावणे प्रतिपत्तिथौ ।
श्रवणक्ष्ये कृष्णपक्षे अद्भुतानन्दसूचकान् ।।३०।। अन्वयार्थ - ततः - उसके बाद. रत्नविनिर्मिते - रत्नों से खचित,
पल्यड़के = पलंग पर, सुप्ता = सोयी हुयी, सौधगता - भवनस्थ, देवी = रानी ने, यामिनीतुर्ययामार्धे = रात्रि के चौथे प्रहर का आधा भाग होने पर, श्रावणे = श्रावण मास में, कृष्णपक्षे = कृष्णपक्ष में, प्रतिपत्तिथी = प्रतिपदा तिथि को, श्रवणर्थे -- श्रवण नक्षत्र में, अद्भुतभाग्यतः = आश्चर्य कर सौभाग्य से, अदभुतानन्दसूचकान = अदम्त आनन्द की सूचना देने वाले, षोडशान् = सोलह, स्वप्नान् = स्वप्नों को.
मत = से रहा। श्लोकार्थ - उसके बाद रत्नों से खचित पलंग पर भवनगता रानी ने रात्रि
के चतुर्थ प्रहर का आधा भाग होने पर श्रावणमास में कृष्णपक्ष की प्रतिपदा तिथि को श्रवणनक्षत्र में अपने अद्भुत सौभाग्य से अदभुत आनंद की सूचना देने वाले सौलह स्वप्नों को
देखा। पूर्वं मत्तगजं पश्चात् वृषभं मृगनायकम् । लक्ष्मी च पुष्पमाले द्वे सूर्य राकापति तथा ||३१।। स्वर्णकुम्भद्वयं तद्वन्मत्स्ययुग्मं सरोवरम् । सिन्धुं सिंहासनं चैव विमानं भुजगालयम् ।।३२।। रत्नराशिं तथा . दिव्यत्कृशानुं धूमवर्जितम् । इत्यादिस्वप्नकान्देवी संवीक्ष्य तदनन्तरम् ।।३३।। मुखे प्रविष्टं सा पश्यत् सिन्धुरं मत्तमद्भुतम् । ततः प्रातः प्रबुद्धा सा सर्व स्वप्नफलं तदा ।।३४।। श्रुत्वा पत्युर्मुखान्नूनं परमानन्दभागभूत् । ततः स्वर्गाच्युतश्चान्तेऽहमिन्द्रो भगवान् स्वयम् ।।३५।।