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प्रथमा
विशेष -
श्लोकार्थ विपुलाचल पर्वत पर आये हुये जिस समवसरण में तीर्थङ्कर प्रकृति के उदय को प्राप्त होने से करूणा स्वरूप भगवान् महावीर स्वयं ही भव्य जीवों को धर्म का उपदेश देते हैं। तीर्थङ्कर प्रकृति करूणा माव से बंधती है अतः उसके उदय को प्राप्त भगवान् को भी यहाँ करूणास्वरूप कह दिया गया है। वस्तुतः भगवान् के पूर्ण राग मिट जाने अर्थात वीतराग होने से करूणा नहीं होती है।
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वनसंचयम् । समुपागमत् ||१०७ || चेदमब्रवीत् ।
समयसारकः ||१०६ ।।
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भूपालं वनपालः षऋतूनां पुष्पाण्यपि तदादाय श्रेणिकं तानि भूपाग्रतः संस्थाप्य वचनं शृणु राजन् ! महावीर प्रभो प्राप्तो विपुलशैलेऽस्मिन् महानन्दमयः शुभः । तद्बोधनार्थं संहृष्टस्त्वामहं समुपागतः ||१०६ ।। अन्वयार्थ - वनपालः = वनरक्षक माली ने षट्ऋतूनां छहों ऋतुओं के. वनसंचयम् = वन सम्पदा को, (दृष्ट्वा = देखकर). पुष्पाण्यपि = फलों को भी, तदादाय वहाँ से लेकर, भूपालं = राजा, श्रेणिकं = श्रेणिक को. समुपागमत् प्राप्त हुआ, च = और, तानि = फलों को भूपाग्रतः = राजा के सामने, संस्थाप्य = रखकर, इदं = यह वचनं = वचन, अब्रवीत् कहा, राजन् ! = हे राजन् शृणु =सुनो, अस्मिन् विपुलशैले = विपुलाचल पर्वत पर महानन्दमयः महान् आनंद रूप, शुभः = अच्छा हितकारी पुण्यस्वरूप, महावीरप्रभोः = भगवान् महावीर का समवसारक: समवसरण, प्राप्तः = प्राप्त हो गया है, अर्थात् आ गया है, तद्बोधनार्थ उसका ज्ञान कराने के लिये संहृष्टः = हर्षित होता हुआ, अहं = मैं, त्वां समुपागतः = तुम्हारे पास आया हूं । श्लोकार्थ वनपाल अर्थात् वनरक्षक माली छहों ऋतुओं में फलने फूलने वाली वन सम्पदा अर्थात् फल फूलों को वनवृक्षों में फला फूला
= इस,
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