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अष्टदशः
५२३ श्लोकार्थ - जब एक सम्बलनामक कूट की वन्दना करने में ही इतना
फल बुद्धिगोचर होता है तो सारी कूटों की वन्दना से होने
वाले फल को वाणी से नहीं कहा जा सकता है। निश्चयाद्योऽभिवन्देत कूट सम्बलमुत्तमम् ।
कोटिषण्णवतिः व्रतजं फलं सः लभेत ध्रुवम् ।।६६।। अन्वयार्थ - निश्चयात् = निश्चय से, यः - जो, उत्तम = उत्तम, सम्बलं
= सम्बल, कूटं = कूट को, अभिवन्देत = प्रणाम करे या उसकी वंदना करे, सः = वह, षण्णवतिः = छियानवे, कोटि = करोड़, व्रतजं = प्रोषधोपवास व्रत से जनित. ध्रुवं = स्थिर,
फलं = फल को, लभेत = प्राप्त करे। श्लोकार्थ - निश्चय ही जो उस उत्तम संबल कूट की वन्दना करे वह
छियान कारोड प्रोषचापमास व्रत से जनित स्थिर फल को प्राप्त करे। वन्दनाच्चैकफूटस्य न तिर्यङ्नरकयोर्गतिः ।
संभवति सर्वनमस्कारफलं प्रभुरेयोच्चरेत् ।।७०।। अन्वयार्थ - च = और, एककूटस्य = एक कूट की. वन्दनात् = वन्दना
से, तिर्यनरकयोः = तिर्यञ्च और नरक में, गति = जाना या अवस्था, न = नहीं, संभवति = संभव होती है, सर्वनमस्कारफलं = सारी कूटों को नमस्कार करने के फल
को, प्रभुः = प्रभु, एव = ही, उच्चरेत् = कहें। श्लोकार्थ- और भी कहते हैं कि एक कूट की वन्दना करने से तिर्यञ्च
और नरक में गति अर्थात् जाना संभव नहीं होता है तथा सारी
कूटों को नमस्कार करने का फल तो भगवान् ही कहें। मल्लिनाथप्रभुर्मोक्षसिद्धं यतस्सत्तपोदग्धकर्मा गतरतीर्थकर्ता। भव्यवृन्दैस्समाराधितं पूजितं सम्बलाख्यं त्वं दास ।।७०।। अन्वयार्थ - यतः = जिस सम्बल कूट से, तीर्थकर्ता = तीर्थकर,
मल्लिनाथप्रभुः = मल्लिनाथ स्वामी. सत्तपोदग्धकर्मा = सम्यक् तप से कर्मों को जलाने वाले होकर, मोक्षसिद्धिं =