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________________ श्री सम्मेदशिखर माहात्म्य केवलज्ञानमासाद्य शुक्लध्यानधरस्तदा । सर्वैः सह गतो मुक्तिं सर्वसंसारदुर्लभान् ।।६७।। अन्वयार्थ - असौ = वह, अचिन्तः = चिन्तारहित राजा, यात्रां = यात्रा को, कृत्वा = करके, संसृतेः = संसार से, ध्रुवम् = दृढ़ता पूर्वक, विरक्तः = विरक्त, (अभूत् = हो गया), एकोनशतकोट्युक्तैः = निन्यान्वे करोड़, भव्यैः = भव्य जीवों के. सह = साथ, दीक्षां = दीक्षा को, गृहीत्वा = ग्रहण करके, तत्र = उस पर्वत पर, एवं = ही, सुदारुणं = घोर, तपः = तपश्चरण, कृत्वा = करके, घातिकर्माणि = घातिया कर्मों को, निहत्य - नष्ट करके, विरागः = राग रहित. (च = और), गतकल्मषः = कर्मकलंक रूपी कल्मष से छूटे हुये, असौ = उस. भव्यराट् = भव्य मुनिराज, केवलज्ञानम = केवलज्ञान को, आसाद्य = प्राप्त करके, शुक्लध्यानधरः = शुक्लध्यान के धारी, (बभूव = हुये). तदा = तभी. सर्वैः = सबके. सह = साथ, सर्वसंसारदुर्लभाम् = संसार में सभी के दुर्लभ. मुक्तिं = मुक्ति को, गतः = चले गये।। श्लोकार्थ - चिन्ता से रहित वह राजा सम्मेदगिरि की यात्रा करके संसार से दृढतापूर्वक विरक्त हो गया तथा निन्यानवे करोड़ भव्य जीवों के साथ दीक्षा ग्रहण करके और उसी पर्वत पर अत्यधिक कठोर तपश्चरण करके व घातिकर्मों को नष्ट करके रागरहित निष्कलंक हुये मुनिराज केवलज्ञान प्राप्त करके शुक्लध्यानके धारी हुये तथा तभी संसार में सभी को दुर्लभ मुक्ति को सभी के साथ चले गये। सम्बलास्यस्य कूटस्य बन्दने फलमीदृशम् । न बुद्धिगोचरमेवेदं सर्वेषां वक्तुमर्हति ।।६८।। अन्वयार्थ - सम्बलास्यस्य = सम्बल नामक. कूटस्य = कूट की, वन्दने = वन्दना करने में, एव = ही,, ईदृशं = ऐसा, इदं = यह, बुद्धिगोचरं = बुद्धिगोचर, (भवति = होता है), (तदा = तब), सर्वेषां = सारी कूटों की, (वन्दने = वंदना करने में), (यत् = जो), (फलं = फल), (अस्ति = है), (तत् = वह). वक्तुं = कहा, न = नहीं, अर्हति = जा सकता है।
SR No.090450
Book TitleSammedshikhar Mahatmya
Original Sutra AuthorDevdatt Yativar
AuthorDharmchand Shastri
PublisherBharat Varshiya Anekant Vidwat Parishad
Publication Year
Total Pages639
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Pilgrimage
File Size12 MB
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