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अष्टदशः
५११ महोदयं = महान् पुण्योदय को प्राप्त, तं उन. देव = प्रभु अर्थात तीर्थकर शिशु को, संस्थाप्य = स्थापित करके. क्षीराब्धिवारिसम्पूर्णः = क्षीरसागर के जल से भरे, जाम्बूनदकृतः -- सोने के बने हुर्य, घटैः = घों से, स: = उस इन्द्र ने, समस्नपयत् = अच्छी तरह स्नान कराया, ततः = उसके बाद, वरैः - श्रेष्ठ, गन्धोदकैः = सुगंधित जल से, एनं = इन, जगत्कान्तं = जगत् के स्वामी का. अभिषिच्य = अभिषेक करके, परया = उत्कृष्ट, मुदया = हर्ष के साथ, (तं = उन
प्रभु की), तुष्टाव = स्तुति की। श्लोकार्थ - सुमेरू पर्वत पर ले जाकर उन्हें पाण्डुकशिला पर विराजमान
करके महान् पुण्योदय को प्राप्त प्रभु का इन्द्र ने स्नान कराया फिर श्रेष्ठ सुगंधित जल से उन जगत् के स्वामी प्रभु का अभिषेक करके अत्यंत भक्तिपूर्ण हर्षोत्कर्ष से उनकी स्तुति
की। अथ संभूष्य देवेशं दिव्यैराभरणेहरिः । आगत्य मिथिलापुर्या क्षितीशभवने प्रभुम् ।।३२|| सिंहासने समारोप्य समय॑ विधिवद्धितम् । अकरोत्ताण्डवीं लीलां प्रभोरप्रेऽद्भुतां तथा ।।३३।। मल्लिाम ततः कृत्वा मात्रे चैनं समर्प्य हि ।
स्वयं जगाम देवेन्द्रः स्वर्ग सुरगणैः सह ||३४।। अन्वयार्थ - अथ = उसके बाद, हरि: - इन्द्र ने, दिव्यैः = दिव्य, आभरणैः
= आभूषणों से, देवेश = देवताओं के स्वामी तीर्थङ्कर शिशु को, संभूष्य = भूषित करके, मिथिलापुर्या = मिथिलापुरी में, आगत्य = आकर, क्षितीशभवने = राजा के भवन में, सिंहासने = सिंहासन पर प्रभुं = प्रभु को, समारोप्य = आरोपित करके या विराजमान करके, विधिवत् = विधिपूर्वक, हितं = हितकारक प्रभु को, समय॑ = पूजकर, प्रभोः = अग्रे = आगे, अदभुतां - आश्चर्यकारक्त ताण्डवी -- ताण्डव नृत्य सम्बन्धी, लीला - लीला को, अकरोत् = किया, तथा च = और, मल्लि: = मल्लिनाथ, नाम = नाम, कृत्वा = करळ, मात्रे - माता