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श्री सम्मेदशिखर माहात्म्य
धारण करके वह कमलनयनी रानी प्रसन्न हुई इन्द्र है प्रमुख जिनका ऐसे देवताओं से पूजित वह अहमिन्द्र रानी के गर्भ में रहने वाला हो गया ।
मार्गेथ शुक्लैकादश्यामश्विन्यां योग उत्तमे । प्रादुरासीत् प्रभावत्यां प्राच्यां रविरिवेश्वरः ||२६||
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अन्वयार्थ अथ इसके बाद मार्गे मार्गशीर्ष महिने में, शुक्लैकादश्यां शुक्ला एकादशी को, अश्विन्यां = अश्विनी नक्षत्र में, उत्तमे उत्तम, योगे - योग होने पर, प्राच्यां : पूर्व दिशा में, रविः इन सूर्य के समान, ईश्वरः = तीर्थङ्कर, प्रभावत्यां = प्रभावती की कोख में से प्रादुरासीत् = उत्पन्न हुये । श्लोकार्थ - इसके बाद मार्गशीर्ष शुक्ला एकादशी को अश्विनी नक्षत्र में शुभ योग बनने पर पूर्व दिशा में सूर्य के समान प्रभावती की कोख में से प्रभु का जन्म हुआ ।
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समादाय
अन्वयार्थ तदैव = उस ही समय, तत्र = वहाँ, आगत्य = आकर, च - और जगत्पतिं = जगत् के स्वामी तीर्थङ्कर को, लेकर, प्रीतिविस्फारितेक्षणः = प्रसन्नता से विस्तृत आंखों वाला, सूत्रामा = इन्द्र, देवैः देवों के साथ, मेरुं पर्वत पर गतः = चला गया।
मेरू
तदैव देवैः सूत्रामा तत्रागत्य जगत्पतिम् । समादाय गतो मेरू प्रीतिविफारितेक्षणः ||२६|
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श्लोकार्थ उसी समय वहाँ आकर और जगत् के स्वामी शिशु तीर्थङ्कर
को लेकर प्रसन्नता से खिली व खुली आँखों वाला इन्द्र देवताओं के साल मेरू पर्वत पर चला गया।
तत्र संस्थाप्य तं देवं पाण्डुकायां महोदयम् । क्षीराब्धिवारिसम्पूर्णैः जाम्बूनदकृतैः घटैः ||३०|| समस्नपयदेनं सः ततो गन्धोदकैर्वरैः ।
अभिषिच्य जगत्कान्तं तुष्टाव परया मुदा ||३१||
अन्यवार्थ तत्र उस सुमेरू पर्वत पर गाण्डुकायां = पाण्डुकशिला पर,