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अष्टदशः
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को अवधि पर्यन्त जीवन वाला वह देव, तत्र =
वहाँ, संस्थितः
= रहता हुआ, अतुलात् = अतुलनीय, भोगात् = भोग से, अपि निश्चय ही विरक्तः विरक्त, (अभूत् = हो
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भी, नूनं गया)।
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श्लोकार्थ - वहाँ सर्वार्थसिद्धि में तेतीस सागर प्रमाण कही गयी आयु को प्राप्त करके यथायोग्य भोजन, श्वासोच्छ्वास बल वीर्य आदि से युक्त हुये उस देव ने सप्ततत्त्वों की चर्चा करते हुये वहाँ स्थित अपने आयुष्काल में अनादि से हुये सिद्धों के अथवा अनादिसिद्ध स्वरूप वाले स्वयं सिद्ध अथवा अनादिसिद्ध स्वरूप वाले स्वयंसिद्ध परमात्माओं के पदों का विशेषता सहित व उत्कर्ष सहित विचार किया ।
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इस प्रकार अपनी आयु को बिताकर छह माह शेष जीवन वाला वह देव सर्वार्थसिद्धि में स्थित हुआ अतुलनीय भोगों से भी निश्चित ही विरक्त हो गया।
अवतीर्य ततो भूभौ यथायं तप आचरन् ।
ततो मुक्तिं तथा तस्य वर्ण्यते चरितं मया ||२०||
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अन्वयार्थ - ततः = सर्वार्थसिद्धि से भूमौ भूमि पर, अवतीर्य = उतरकर अर्थात् पृथ्वी पर जन्म लेकर, अयं - इसने यथा = जिस प्रकार से तपः = तपश्चरण का आचरन् = आचरण करते हुये, ततः = वहीं से मुक्तिं मुक्ति को ( प्राप्तवान् = प्राप्त किया), तस्य = उसके चरितं = चरित्र को मया = मेरे द्वारा, तथा उसी प्रकार से वर्ण्यते = कहा जाता है |
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=
श्लोकार्थ उस सर्वार्थसिद्धि से पृथ्वी पर अवतरित होकर अर्थात् जन्म
लेकर इस देव ने जिस प्रकार से तप का आचरण करते हुये मुक्ति को प्राप्त कर लिया उसके चरित्र को उसी प्रकार से मेरे द्वारा कहा जाता है ।
जम्बूद्वीपे भारतेऽस्मिन् क्षेत्रोऽस्ति मिथिलापुरी । इक्ष्वाकुवंशे तत्रास्ति कुंभसेनो कुंभसेनो महानृपः ||२१||