________________
५०२
श्री सम्मेदशिखर माहात्म्य कहता हूं, किल = निश्चय ही, तत् = वह, साधुभिः = सज्जनों
द्वारा, श्रोतव्यं = सुनना चाहिये । श्लोकार्थ - उन मल्लिनाथ की कथा पूर्व में कहकर मैं उस कूट के
माहात्म्य को सरल पदों से कहता हूँ वह सज्जनों द्वारा सुना जाना चाहिये। जम्बूनाम्नि द्वीपराजे विदेहे पूर्वके शुभे । विराजते स्वभावाच्च विषयः कच्छकावती।।४।। तत्राशोकपुरं दिव्यं भाति मुक्तिपुरोपमम् ।
तत्र वैश्रवणे राजा अभूद्वैश्रवणोपमः ।।५।। अन्वयार्थ - जम्बूनाम्नि = जम्बू नामक द्वीपराजे = द्वीपराज में, शुभे =
सुन्दर पूर्वके - पूर्व, विदेहे = विदेह क्षेत्र में, स्वमावात् = स्वभाव से, कच्छकावती = कच्छकावती नामक, विषयः = देश, विराजते = सुशोभित होता है, च = और, तत्र = उस देश में स्वभावान् = देश में. अशोकपरं = अशोकपुर नामक. मुक्तिपरोपमं = मुक्तिपुर के समान, दिव्यं = दिव्य, (नगरं - एक नगर), भाति = सुशोभित है, तत्र = उस नगर में, वैश्रवणोपमः = वैश्रवण अर्थात् कुबेर के समान, वैश्रवण =
वैश्रवण नामक, राजा = राजा, अभूत् = हुआ। श्लोकार्थ - द्वीपराज जम्बूद्वीप में सुन्दरपूर्व विदेह क्षेत्र का कच्छकावती
नामक देश सुशोभित है। उस देश में स्वभाव से अशोकपुर नामक दिव्य और मुक्तिपुर के समान एक नगर भी सुशोभित है । उस नगर में वैश्रवण अर्थात् कुबेर के समान ही वैश्रवण राजा हुआ। अनेकगुणसम्पन्नः शीलसिन्धुः प्रतापवान् । प्रभुनामजपासक्तो राज्ये शक्र इव लसन् ।।६।। वनक्रीडानिमित्तं स एकदा वनमध्यगात् ।
ददशैंकवटतरूं नूनं महान्तं तत्र भूपतिः ।।७।। अन्वयार्थ - राज्ये = राज्य में, शक्र इव = इन्द्र के समान, लसन् -
सुशोभित होता हुआ, अनेकगुणसम्पन्नः = अनेक गुणों का