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सार्धं द्वादशकोट्युक्ताः वाद्यभेदाश्च ये स्मृताः । स्वस्वरीत्या ते ते मृदुध्यनिमनोहराः । । ६६ ।।
नदन्ति
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अन्वयार्थ ये जो द्वादशकोटि साढ़े बारह करोड़. वाद्यभेदाः = वाद्यों बाजों के भेद, उक्ताः = कहे गये हैं, स्मृताः च = और आज भी याद रखे गये हैं, ते वे, स्वस्वरीत्या अपने-अपने
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प्रण, सार्धं-साथ, मृदुष्यनमनोहरा मधुर और मनोरञ्जक चित्ताकर्षक ध्वनि सहित नदन्ति = बजते हैं। अर्थात् शब्द करते हैं ।
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अन्वयार्थ यत्र =
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श्लोकार्थ जो भी साढ़े बारह करोड़ वाद्ययंत्र कहे गये थे तथा आज भी स्मृत हैं, वे समवसरण में अपनी-अपनी वादनरीति से मधुर और मनोहर ध्वनि सहित बजते रहते हैं। पंचाश्चर्याणि चाजर्स यत्र देवप्रभावतः । निरीक्ष्यन्ते ऽखिलैर्दृष्टा तत्रास्थैर्भाग्यदुन्दुभिः ||१०० ||
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श्री सम्मेदशिखर माहात्म्य
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जहाँ, देवप्रभावतः = जिनदेव के प्रभाव से, पंच पाँच, आश्चर्याणि = आश्चर्य-चमत्कार, अजर्स = निरन्तर ही अखिलैः सभी, तत्रस्थैः समवसरण में बैठे हुये लोगों द्वारा निरीक्ष्यन्ते = देखे जाते हैं, च = और, भाग्यदुन्दुभिः = भाग्य की विजय पताका, दृष्टा = देखी गई, (भवति होती है) ।
बैरभावविनिर्मुक्ता स्वभाववैरिणोऽन्योन्यं
अन्वयार्थ यत्र - जहाँ, (कुत्र
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श्लोकार्थ समवसरण में हमेशा ही भगवान् जिनेन्द्र देव के प्रभाव से पांच आश्चर्य या चमत्कार सभी लोगों द्वारा देखे जाते हैं तथा भाग्य की विजय पताका भी देखी गई होती है।
निरीक्षिताः ।
यत्र सर्वे येऽत्र
शान्तमहीतले ||१०१ ||
= कहीं), अपि = भी, ये = जो, स्वभाववैरिणः = स्वभाव से अर्थात् जन्म जात वैर रखने वाले
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