________________
प्रथमा
श्लोकार्थ - प्रभु के ऊपर अत्यंत कांति सम्पन्न अत्युत्तम तीन छत्र होते
हैं, चौंसठ यक्ष समूह में चामरों अर्थात् चँवरों को दारते हैं। अशोक वृक्ष आदि आठ प्रतिहार्य सुशोभित होते रहते हैं। उनमें जो भामण्डल होता है उसमें तीन भूतकाल के. तीन भविष्य के तमा एक वर्तमान का भव इस प्रकार सात भव दिखाई देते हैं। समवसरण में भामण्डल की अतिशय युक्त प्रभा की
अधिकता से रात्रि एवं दिन का भेद ही ज्ञात नहीं होता है। क्चधिज्जिनेन्दप्रतिमापूजनं चामरैः कृतम् । क्वचिन्नृत्यं क्वचिद्वाचं क्वधिन्मङ्गलमुत्तमम् ।।१७।। क्यचिज्जिनगुणग्रामकीर्तनं साधुभिः कृतम् ।
केऽपि शुक्लाग्निना दग्धं घातिकर्माणि चोत्सुकाः ।।६८।। अन्वयार्थ - क्वचित् = कहीं पर, चामरैः = चंवरों से. जिनेन्द्रप्रतिमापूजनम्
= जिनेन्द्र भगवान् की प्रतिमाओं का पूजन, कृतम् = किया जाता हुआ, क्वचित् = 'कहीं पर, नृत्यं = नृत्य. (भवति = होता है), क्वचित् = कहीं पर, उत्तमम् = उत्तम, मङ्गलं = मङ्गलप्रद, वाद्यं = वाद्यों को बजना, (भवति = होता है), क्वचित् = कहीं पर, साधुभिः = साधुओं सज्जनपुरूषों द्वारा, कृतं = किया हुआ, जिनगुणग्रामकीर्तनं = जिनेन्द्र के गुण समूहों का स्तुति गान, कीर्तन, भवति = होता है, क्वचित् च = और कहीं पर, केऽपि = कुछ साधुगण, शुक्लध्यानाग्निना = शुक्लध्यान रूपी अग्नि द्वारा, घातिकर्माणि = घातिया कर्मों को, दग्धुं = जलाने के लिये, उत्सुकाः = उत्सुक, (दृश्यन्त
= दिखाई देते हैं)। श्लोकार्थ - समवसरण में कहीं पर चँवरों से जिनेन्द्र प्रतिमाओं का पूजन
होता हुआ दिखाई देता है तो कहीं नृत्य, कहीं पर मङ्गल प्रद उत्तम वाद्य बजते रहते हैं तो कहीं पर साधुओं द्वारा जिनेन्द्र भगवान् के गुण समूहों का गुणगान किया जाता हुआ दिखता है तो कहीं पर साधु परमेष्ठी शुक्लाग्नि से घातिया कर्मों को जलाने के लिये उत्सुक दिखाई देते हैं।